उदारशिरोमणि सर्वव्यापक भगवान् श्रीकृष्ण ने जब इस प्रकार गोपियों का सम्मान किया, तब गोपियों के मन में ऐसा भाव आया कि संसार की समस्त स्त्रियों में हमीं सर्वश्रेष्ठ हैं, हमारे समान और कोई नहीं है | जब भगवान् ने देखा कि इन्हें कुछ गर्व हो गया है, तब वे उनका गर्व दूर करने के लिए अपनी प्रधान सखी (राधिकाजी) को लेकर अन्तर्धान हो गये | भगवान् के अन्तर्धान होते ही सब गोपियों में खलबली मच गयी, वे भगवान् श्रीकृष्ण के वियोग में अत्यंत व्याकुल हो गयीं और वनमें श्रीकृष्ण को खोजने लगीं | जब बहुत खोजनेपर भी भगवान् नहीं मिले, तब वे परस्पर में ही भगवान् की लीलाओं का अनुकरण करने लगीं | कोई श्रीकृष्ण बन गयी और कोई गोपी; इस प्रकार रासलीला करने लगीं |
इधर जब भगवान् राधाजी को साथ लेकर वन में जा रहे थे, तब राधाजी के मन में यह अभिमान आया कि मैं सबसे श्रेष्ठ हूँ, इसीलिए भगवान् सब गोपियों को छोड़कर मुझे साथ ले आये | इसके बाद चलते-चलते राधाजी ने भगवान् से कहा कि ‘मैं थक गयी हूँ, मुझसे अब चला नहीं जाता | इसलिए आप मुझे अपने कंधेपर बिठाकर ले चलिए |’ भगवान् बोले—‘ठीक है |’ ऐसा कह भगवान् बैठ गये और जब राधिका जी भगवान् के कंधे पर बैठने लगीं, तब राधिकाजी के अभिमान को दूर करने के लिए भगवान् झट अन्तर्धान हो गये | भगवान् को अन्तर्धान हुए देखकर राधिकाजी भी विलाप करने लगीं | वे ‘हा कृष्ण ! हा कृष्ण !’ कहती हुई कृष्ण को खोजने लगीं |
उधर गोपियाँ भी भगवान् श्रीकृष्ण और राधिकाजी को खोजने के लिए वन में घूमने लगीं | घूमते-घूमते उन्हें श्रीकृष्ण और राधिकाजी के पदचिह्न मिले | उन चिह्नों को देखती हुई गोपियाँ आगे बढ़ गयीं | आगे जानेपर उनको श्रीकृष्ण के बैठने का चिह्न मिला; किन्तु उससे और आगे बढ़ने पर केवल राधिकाजी के ही पदचिह्न मिले, श्रीकृष्ण के नहीं | फिर वे सखियाँ राधिकाजी के पदचिह्नों के पीछे-पीछे आगे बढ़ी और कुछ दूर जानेपर उनको विलाप करती हुई राधिकाजी मिल गयीं | गोपियों ने राधिकाजी से पूछा—‘श्रीकृष्ण कहाँ हैं ?’ राधिकाजी ने कहा—‘भगवान् मेरे साथ में यहाँ तक आये थे, किन्तु मैंने कुटिलतावश उनका अपमान किया; इसलिए वे मुझे भी छोड़कर चले गये |’
तब विरह में व्याकुल हुई सभी गोपियाँ भगवान् श्रीकृष्ण को आर्तभाव से पुकारने और उनके गुणों का गान करने लगीं | उनको अत्यन्त व्याकुल देखकर भगवान् सहसा सबके बीच में प्रकट हो गये |
उस समय गोपियों ने भगवान् पूछा—‘नटनागर ! कुछ लोग तो ऐसे होते हैं, जो प्रेम करनेवालों से ही प्रेम करते हैं और कुछ लोग प्रेम न करनेवालों से भी प्रेम करते हैं और कोई-कोई दोनों से ही प्रेम नहीं करते | इन तीनों में तुम्हें कौन-सा अच्छा लगता है ?’
भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा—‘मेरी प्यारी सखियों ! जो प्रेम करनेपर प्रेम करते हैं, उनका तो सारा उद्योग स्वार्थ को लेकर है | न तो उनमें सौहार्द है और न धर्म ही | उनका प्रेम केवल स्वार्थ के लिए ही है, इसके सिवा उनका और कोई प्रयोजन नहीं | गोपियों ! जो लोग प्रेम न करनेवाले से भी प्रेम करते हैं, जैसे स्वभाव से ही करुणाशील सज्जन और माता-पिता—उनका हृदय सौहार्द से, हितैषिता से भरा रहता है और उनके व्यवहार में निश्छल धर्म भी है | कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो प्रेम करनेवालों से भी प्रेम नहीं करते | ऐसे लोग चार प्रकार के होते हैं | एक तो वे, जो अपने स्वरुप में ही मस्त रहते हैं | दूसरे वे, जो आप्तकाम यानी कृतकृत्य हो चुके हैं | तीसरे वे हैं, जो अकृतज्ञ यानी कृतघ्नी हैं और चौथे वे हैं, जो अपना हित करनेवाले परोपकारी गुरुतुल्य लोगों से भी जान-बूझकर द्रोह करते हैं | गोपियों ! मैं तो प्रेम करनेवालों से भी प्रेम का वैसा व्यवहार नहीं करता, जैसा करना चाहिए | जैसे निर्धन मनुष्य को कभी बहुत-सा धन प्राप्त हो जाय और फिर खो जाय तो उसका चित्त खोये हुए धन की चिन्ता से भर जाता है, अन्यत्र नहीं जाता, वैसे ही मैं भी उनकी चित्तवृत्ति और भी मुझमें लगी रहे, निरंतर मुझमें ही लगे रहे, इसीलिए ऐसा करता हूँ | तुम्हारी चित्तवृत्ति अन्यत्र कहीं न जाय, मुझमें ही लगी रहे, इसीलिए तुमलोगों से प्रेम करता हुआ ही मैं तुम्हारे अभिमान को नष्ट करने एवं प्रेम की वृद्धि करने के लिए छिप गया था | अतः तुमलोग मेरे प्रेम में दोष मत निकालो | तुम सब मेरी प्यारी हो और मैं तुम्हारा प्यारा हूँ | मुझसे तुम्हारा यह मिलन सर्वथा निर्मल और निर्दोष है | यदि मैं अमर शरीर से अनन्त कालतक तुम्हारे प्रेम का बदला चुकाना चाहूँ तो भी नहीं चुका सकता | मैं तो तुम्हारा ऋणी हूँ |’ ऐसा कहकर वे गोपियों के साथ पुनः रासलीला करने लगे
गत ब्लॉग से आगे...गौएँ परम पावन और पुण्यस्वरूपा है । इन्हें ब्रह्मणों को दान करने से मनुष्य स्वर्ग का सुख भोगता है । पवित्र जल से आचमन करके पवित्र गौओं के बीच में गोमती-मन्त्र ‘गोमा अग्ने विमाँ अश्वी’ का जप करने से मनुष्य अत्यन्त शुद्ध एवं निर्मल (पापमुक्त) हो जाता है । विद्या और वेदव्रत में निष्णात पुण्यात्मा ब्राह्मणों को चाहिये की वे अग्नि, गौ और ब्रह्मणों के बीच अपने शिष्यों को यज्ञतुल्य गोमती-मन्त्र की शिक्षा दे । जो तीन रात तक उपवास करके गोमती-मन्त्र का जाप करता है उसे गौओं का वरदान प्राप्त होता है । पुत्र की इच्छा वाले को पुत्र,
धन की इच्छा वाले को धन और पति की इच्छा रखनेवाली स्त्री को पति मिलता है । इस प्रकार गौएँ मनुष्य की सम्पूर्ण कामनाये पूर्ण करती है । वे यज्ञ का प्रधान अंग है, उनसे बढ़कर दूसरा कुछ नहीं । (महा० अनु० ८१)
गौ-मन्त्र जाप से पापनाश
‘गाय घृत और दूध देने वाली है, घृत का उत्पतिस्थान, घृत को प्रगट करने वाली, घृत की नदी और घृत की भवरँरूप है, वे सदा मेरे घर में निवास करे । घृत सदा मेरे ह्रदय में रहे, मेरी नाभि में रहे, मेरे सारे अंगों में रहे और मेरे मन में स्तिथ रहे । गायें सदा मेरे आगे रहे, गायें सदा मेरे पीछे रहे, गायें मेरे चारों और रहे और मैं गायों के बीच में ही निवास करूँ।’ (महा० अनु० ८०।१-४)
जो मनुष्य प्रतिदिन प्रात:काल और सांयकाल आचमन करके उपर्युक्त मन्त्र का जाप करता है, उसके दिन भर के पाप नष्ट हो जाते है ।
—श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी, भगवतचर्चा पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!




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