Tuesday, 3 December 2013

शिव-विष्णु लीला एक बार भगवान नारायण अपने वैकुंठलोक में सोये हुए थे

 शिव-विष्णु लीला एक बार भगवान नारायण अपने वैकुंठलोक में सोये हुए थे. स्वप्न में वो क्या 

देखते है कि करोड़ो चन्द्रमाओ कि कन्तिवाले, त्रिशूल-डमरू-धारी, स्वर्णाभरण -भूषित, संजय-वन्दित

, अणिमादि सिद्धिसेवित त्रिलोचन भगवान शिव प्रेम और आनंदातिरेक से उन्मत होकर उनके

सामने नृत्य कर रहे है, उन्हें देखकर भगवान विष्णु हर्ष-गदगद से सहसा शैयापर उठकर बैठ गये

 और कुछ देर तक ध्यानस्थ बैठे रहे. उन्हें इस प्रकार बैठे देखर श्री लक्ष्मी जी उनसे पूछने लगी

 कि "भगवान! आपके इस प्रकार उठ बैठने का क्या कारण है?" भगवान ने कुछ देर तक उनके इस

प्रश्न का कोई उत्तर नहीं दिया और आनंद में निमग्न हुए चुपचाप बैठे रहे. अंत में कुछ स्वस्थ

 होने पर वे गदगद-कंठ से इस प्रकार बोले - "हे देवि! मैंने अभी स्वप्न में भगवान श्री महेश्वर का

दर्शन किया है, उनकी छबी ऍसी अपूर्व आनंदमय एवं मनोहर थी कि देखते ही बनती थी. मालूम

 होता है, शंकर ने मुझे स्मरण किया है. अहोभाग्य! चलो, कैलाश में चलकर हमलोग महादेव के

 दर्शन करते है . यह कहकर दोनों कैलाश की और चल दिए. मुश्किल से आधी दूर ही गये होंगे 

की देखते है भगवान शंकर स्वयं गिरिजा के साथ उनकी और आ रहे है, अब भगवान के आनंद का

क्या ठिकाना? मानो घर बैठे निधि मिल गई. पास आते ही दोनों परस्पर बड़े प्रेम से मिले. मानो

 प्रेम और आनंद का समुन्द्र उमड़ पड़ा. एक दुसरे को देखकर दोनों के नेत्रों से आन्दाश्रू बहने लगे

 और शरीर पुलकायमान हो गया. दोनों ही एक दुसरे से लिपटे हुए कुछ देर मुक्वत खड़े रहे.

 प्रश्नोतर होनेपर मालूम हुए की शंकर जी ने भी रात्रि में इसी प्रकार का स्वप्न देखा मानो विष्णु 

भगवान को वे उसी रूप में देख रहे है, जिस रूप में वे अब उनके सामने खड़े थे. दोनों के स्वप्न

 का वृतांत अवगत होने पर दोनों ही लगे एक दुसरे से अपने यहाँ लिवा ले जाने का आग्रह करने..

 नारायण कहते वैकुण्ठ चलो और शम्भू कहते कैलाश की और प्रस्थान कीजिये. दोनों के आग्रह में

 इतना अलौकिक प्रेम था कि यह निर्णय करना कठिन हो गया कि कहाँ चला जाये? इतने में ही

 क्या देखते है वीणा बजाते, हरिगुण गाते नारद जी कही से आ निकले. बस, फिर क्या था? लगे 

दोनों ही उनसे निर्णय कराने कि कहाँ चला जाये? बेचारे नारद जी स्वयं परेशान थे उस अलौकिक

 मिलन को देखकर , वे तो स्वयं अपनी सुध-बुध भूल गये और लगे मस्त होकर दोनों का गुणगान

करने. अब निर्णय कौन करे? अंत में यह तय हुई कि भगवती उमा जो कह दे वही ठीक है.

 भगवती उमा पहले तो कुछ देर चुप रही, अंत में दोनों को लक्ष्य करके बोली -"हे नाथ! हे

 नारायण! आपलोगों के निश्छल, अनन्य एवम अलौकिक प्रेम को देखकर तो यही समझ में आता

 है कि आपके निवास-स्थान अलग-अलग नहीं है, जो कैलास है वही वैकुण्ठ है और जो वैकुण्ठ है

 वही कैलाश है, केवल नाम में ही भेद है. यही नहीं , मुझे तो ऐसा प्रतीत होता है कि आपकी 

आत्मा भी एक ही है, केवल शरीर देखने में दो है. और तो और, मुझे तो अब यह स्पष्ट दिखने

 लगा ही आपके भार्याये भी एक ही है, दो नहीं. जो मै हु वही श्रीलक्ष्मी है और जो श्रीलक्ष्मी है 

वही मै हु.. केवल इतना ही नहीं, मेरी तो अब यह दृढ धारणा हो गई है कि आपलोगों में से एक

के प्रति जो द्वेष करता है, वह मानो दुसरे के प्रति ही करता है, एक की जो पूजा करता है, वह 

स्वाभाविक ही दुसरे कि भी करता है और जो एक को अपूज्य मानता है वह दुसरे कि भी पूजा 

नहीं करता... मै तो यह समझती हु कि आप दोनों में जो भेद मानता है, उसका चिरकालतक घोर 

पतन होता है, मै देखती हु कि आप मुझे इस प्रसंग में अपना मध्यस्थ बनाकर मानो मेरी प्र्वच्चना

कर रहे है, मुझे चक्कर में डाल रहे है, मुझे भुला रहे है. अब मेरी यह प्रार्थना है कि आपलोग दोनों

 ही अपने-अपने लोक को पधारिये .. श्रीविष्णु यह समझे कि हम शिवरूप में से वैकुण्ठ जा रहे है

 और महेश्वर यह माने कि हम विष्णुरूप से कैलाश गमन कर रहे है .. इस उत्तर को सुनकर 

दोनों परम प्रसन्न हुए और भगवती उमा कि प्रशंसा करते हुए दोनों अपने अपने लोक को चले 

गये. लौटकर जब विष्णु वैकुण्ठ पहुंचे तो श्री लक्ष्मी जी उनसे पूछने लगी कि - 'प्रभु! सबसे अधिक

प्रिय आपको कौन है? इस पर भगवान बोले - 'प्रिय! मेरे प्रियतम केवल श्री शंकर है, देहधारियो को

 अपने देह कि भांति वे मुझे अकारण ही प्रिय है, एक बार मै और शंकर दोनों ही पृथ्वी पर घुमने

 निकले, मै अपने प्रियतम की खोज में इस आशय से निकला कि मेरी ही तरह जो अपने प्रियतम

 की खोज में देश-देशांतर में भटक रहा होगा, वही मुझे अकारण प्रिय होगा. थोड़ी देर के बाद ही

 मेरी श्री शंकर जी से भेंट हो गई. ज्यो ही हमलोगों की चार आँखे हुई कि हमलोग पुर्वजन्मअर्जित

विद्या कि भांति एक दुसरे कि प्रति आक्रष्ट हो गये "वास्तव में मै ही जनार्दन हु. और मै ही 

महादेव हु, अलग-अलग दो घडो में रखे हुए जल कि भांति मुझमे और उनमे कोई अंतर नहीं है

, शंकरजी के अतिरिक्त शिवकी अर्चा करनेवाला शिवभक्त भी मुझे अत्यंत प्रिय है, इसके विपरीत 

जो शिव कि पूजा नहीं करतेवे मुझे कदापि प्रिय नहीं हो सकते...

बादाम बलप्रद एवं पौष्टिक है

बादाम गरम, स्निग्ध, वायु को दूर करने वाला, वीर्य को बढ़ाने वाला है। बादाम बलप्रद एवं पौष्टिक

है किंतु पित्त एवं कफ को बढ़ाने वाला, पचने में भारी तथा रक्तपित्त के विकारवालों के लिए

 अच्छा नहीं है। औषधि-प्रयोगः शरीर पुष्टिः रात्रि को 4-5 बादाम पानी में भिगोकर, सुबह छिलके

 निकालकर पीस लें फिर दूध में उबालकर, उसमें मिश्री एवं घी डालकर ठंडा होने पर पियें। इस 

प्रयोग से शरीर हृष्ट पुष्ट होता है एवं दिमाग का विकास होता है। पढ़ने वाले विद्यार्थियों के लिए

 तथा नेत्रज्योति बढ़ाने के लिए भी यह एक उत्तम प्रयोग है। बच्चों को 2-3 बादाम दी जा सकती

हैं। इस दूध में अश्वगंधा चूर्ण भी डाला जा सकता है। बादाम का तेलः इस तेल से मालिश करने

 से त्वचा का सौंदर्य खिल उठता है व शरीर की पुष्टि भी होती है। जिन युवतियों के स्तनों के 

विकास नहीं हुआ है उन्हें रोज इस तेल से मालिश करनी चाहिए। नाक में इस तेल की 3-4 बूँदें

 डालने से मानसिक दुर्बलता दूर होकर सिरदर्द मिटता है और गर्म करके कान में 3-4 बूँदें डालने से

कान का बहरापन दूर होता है। बादाम तेल का प्रयोग रंगत में निखार लाता है और बेजान त्वचा

 को रौनक प्रदान करता है। त्वचा की खोई नमी लौटाने में भी बादाम तेल सर्वोत्तम माना गया 

है। त्वचा को नरम, मुलायम बनाने के लिए भी आप इसे लगा सकते हैं। नहाने से 2-3 घंटे पहले

 इसे लगाना आदर्श रहता है। बादाम तेल की मालिश न सिर्फ बालों के लिए अच्छी होती है,

ल्कि मस्तिष्क के विकास में भी फायदेमंद होती है। हफ्ते में एक बार बादाम तेल की मालिश

 गुणकारी है। बादाम तेल का इस्तेमाल बाहर से किया जाए या फिर इसका सेवन किया जाए, यह

 हर लिहाज से उपचारी और उपयोगी साबित होता है। हर रोज रात को 250 मिग्रा गुनगुने दूध में

5-10 मिली बादाम तेल मिलाकर सेवन करना लाभदायक होता है। हड्डियां होती हैं मजबूत बादाम

में मौजूद फॉस्फोरस हड्डियों और दांतों को मजबूत बनाता है। इसके साथ ही इनसे जुड़ी बीमारियां

 होने का खतरा कम हो जाता है। भोजन के बाद रक्त में बढ़ने वाले शुगर के स्तर को कम करने

की शक्ति बादाम में होती है। इसके अलावा इसमें विटामिन ई भी भरपूर मात्रा में होता है, जिससे

 त्वचा संबंधी विकारों में फायदा मिलता है। बादाम के अंदर पोटेशियम होता है जो की ब्लड प्रेशर

 को सामान्य बनाए रखता है। बादाम खाना खाने के बाद शुगर और इंसुलिन का लेवल बढ़ने से 

रोकता है, जिससे मधुमेह की बीमारी से बचा जा सकता है बादाम गर्भवती महिलाओं के लिए बहुत

फायदेमंद होता है। बादाम में फोलिक एसिड होता है ,इसके कारण जच्चे-बच्चे में रक्त की कमी

 नहीं होती। बादाम में मैग्निशियम,कॉपर और रिबोफ्लेविन जैसे पोषक तत्व होते हैं, जो की शरीर 

की ऊर्जा को बढ़ाने में मदद करते हैं। बादाम दिमाग के साथ-साथ शरीर को भी फिट रखता है।

 बादाम में मौजूद मिनरल्स विटामिंस,डायटरी फाइबर दिमाग को तरोताजा रखने के साथ-साथ

 शरीर की मेटाबॉलिज्म में भी मददगार होता है रोजाना बादाम का सेवन करने से सर्दी-जुकाम

 जैसी बीमारियों से भी बचा जा सकता है। रोजाना बादाम की 5-8 गिरी खाने से बालों को गिरने 

की समस्या भी कम होती है। दूध में कुछ बूंदे बादाम के तेल की डालकर,दसका सेवन करने से

 कफ संबंधी रोगों में कमी आती है। शरीर में संचित कफ धीरे-धीरे बाहर निकलने लगता है।
                        

Sunday, 1 December 2013

हमारा कर्त्तव्य "हे प्रभु" हे परमात्मन

जय शंकर जी कि जी {{{{{[ हमारा कर्त्तव्य }}}}==== भाग == पहला ==== हम लोगों के 

कर्त्तव्य कि और ध्यान देनेपर अधिकाँश में येही अनुमान होता है कि इस समय हम लोग कर्त्तव्य

 के पालनमें प्रायः तटपर नहीं हैं.ध्यानपूर्वक विचार करने से पद पदपर त्रुटियां दिखाई देती हैं.आज

कल सभी लोग अपनी उनती चाहते हैं और यथासाध्य चेष्टा करना भी उत्तम समझते हैं, अतएव

 सबसे पहले विचारणीय विषय यह है कि मनुष्य का करतव क्या है,उसके पालन के लिए मनुष्य

 को किस प्रकार चेष्टा करनी चाहिए और इच्छा करने पर भी मनुष्य कौन सी बाधाओं के कारण

 यथासाध्य चेष्टा नहीं कर सकता ? मनुष्य का प्रधान कर्त्तव्य है अपने आतम कि उनती करना 

,भगवान कहते हैं कि मनुष्य को चाहिए कि वह अपने द्वारा अपना उद्धार करे. अपनी आत्मा को 

अधोगतिमें न पहुंचावें अब यह समझना हैं हमें कि आखिर आत्मा कि उनती क्या है उसका अधः 

पतन किस्में है ? अपने अन्दर (अध्यात्म ) ज्ञान ,(परम) सुख,(अखंड) शांति और न्यायकी

 वर्त्तमान में और परिणाम में उत्तरोतर वृद्धि करना आत्मा कि उनती है.और इसके विपरीत दुःख 

के हेतु अज्ञान ,प्रमाद,अशांति और अन्यायकी और झुकना तथा उनकी वृद्धि में हेतु बनना ही 

आत्मा का अधःपतन है.मनुष्य को निरंतर आत्म निरिक्षण करते हुए आत्मा कि उनती के पर्यतन 

में लग्न और अधः पतन के पर्यटन से हटना चाहिए,जो मनुष्य अपनी उनती कर चुके हैं या उनत 

के मार्गपर स्थित है उनका संग आत्मा कि उनती में और जो गिरे हुए हैं या उत्तरोत्तर गिर रहे हैं

उनका संग आत्मा कि अवनतिमें सहायक होता है ,इसलिए सदा सर्वदा उत्तम पुरुषों का संग

करना ही उचित है.उत्तम पुरुष उनको समझना चाहिए जिनमें स्वार्थ ,अहंकार,दम्भ, और क्रोध नहीं

 है

,जो मान बड़ाई या पूजा नहीं चाहते,जिनके आचरण परम पवित्र हैं,जिनको देखने और जिनकी

 वाणी सुनने से परमात्मा में प्रेम और श्रद्धा कि वृद्धि होती है,हृदय में शांति का प्रादुर्भाव होता है

 और परमेश्वर,परलोक तथा सैट शास्त्र में श्रद्धा उत्पन होकर कल्याण कि और झुकाव होता है,ऐसे

 परलोक गत और वर्त्तमान सत्पुरुषों कि उत्तम आचरणों को आदर्श मानकर उनका अनुकरण

 करना एवं उनके आज्ञानुसार चलना तथा अपनी बुद्धि में जो बात कल्याण कारक,शांति प्रद औ

 श्रेस्ठ प्रतीत हो उसी को काम में लाना चाहिए ! संसार के प्रायः सभी सम्प्रदाये और मत-मतान्त 

किसी न किसी रूप में उसी को मानते हैं और उसी कि और अपने अनुयायी को ले जाना चाहते

 हैं,अतएव उन सभी सम्प्रदाय और मत-मतांतरोंके मनुष्य जिन-जिन ग्रंथों को अपना शास्त्र और

 धर्म ग्रन्थ मानते हैं उनके लिए वही शास्त्र और धर्म ग्रन्थ हैं.जो व्यक्ति जिस धर्म को मानता है

 उसे उसी धर्म शास्त्र के अनुसार अपने सदाचारी श्रेस्ठ पूर्वजों द्वारा आचरित और उपदिष्ट उत्तम

 साधनोंमें से जो अपनी बुद्धि में आत्मा का कल्याण करने वाले प्रिये प्रतीत हों,उनको गरहन करना

ही उसका शास्त्रानुसार चलना है.शास्त्रों कि उन्ही बातों का अनुकरण करना चाहिए जो विचार करने

 पर अपनी बुद्धि में भी कल्याण कारक प्रतीत हों,जिनको हम उत्तम पुरुष मानते हैं उनके भी 

उन्ही आचरणों का हमें अनुकरण करना उचित है,जो हमारी बुद्धि से उत्तम से उत्तम प्रतीत 

हों.उनके जो आचरण हमारी दृष्टि में अनुचित और शंकास्पद प्रतीत हों उन्हों गरहन नहीं करना 

चाहिए.जिनका कल्याण हो चूका है या कल्याण के मार्ग पर बहुत कुछ अगर्सर हो चुके हैं ऐसे 

पुरषों का संग न मिलने पर या किसी में भी ऐसा होने का विश्वास न जमनेपर ऐसे सत्पुरुषों कि

 प्राप्ति के लिए परमेश्वर इस भावसे प्रार्थना करनी चाहिए कि "हे प्रभु" हे परमात्मन ! हे नाथ 

आप में मेरा अनन्य प्रेम हो इसके लिए आप कृपा करके मुझे उन महान पुरुषों का संग दीजिये जो

सच्चे मन से और परम श्रद्धा से आपके प्रेम में मत्त रहते हैं ! बार बार प्रभु से विनय करने पर

 उसकी कृपा से साधकको उसकी इच्छा के अनुकूल सत्पुरुषों कि प्राप्ति अवश्य ही हो जाती है.

 मुझमे मैं न रहूँ ऐसी कृपा कीजिये दीन दयाल पलकों को जब जब भी खोलूं मैं आपके करके

 दर्शन मैं हो जाऊं तब तब निहाल ............ प्रभु चरणों कि सेवा का दीवाना