Wednesday 19 February 2014

हिन्दू धर्म में सोलह संस्कार ही हमारा जीवन है

हिन्दू धर्म में संस्कारवान होना बहुत जरुरी है। संस्कारवान मनुष्य को समाज में काफी मान सम्मान तो मिलता ही है व ईश्वर की कृपा सदा बनी रहती है। इन कारणो से ही मनुष्य का जीवन सुखी व धनी हो जाता है। माना जाता है कि जिस मनुष्य ने अपने जीवन काल में 16 के 16 संस्कारों को विधिवत कर लिया हो तो मरने के बाद भी ऐसा मनुष्य सुख भोगता हुआ अगले जन्म में भी सुखी रहता है।

हिन्दू धर्म के मुताबिक जीवन में विभिन्न अवसरों पर 16 संस्कार करने का विधान है। हमारे ऋषि मुनियो व कुछ ग्रथों के अनुसार 14 से लेकर 40 तक संस्कार बताये गये है, पर ज्यादातर विद्वानो ने 16 संस्कारों को ही महत्व दिया है। इनको पूरा करने से मन के विकार नष्ट हो कर मानव तन, मन व धन से सुखी होकर मोक्ष ही पाता है। संस्कारों के समय होने वाले कर्मकांड , हवन ,मन्त्र, पाठ, पूजा ,दान आदि की प्रक्रिया विज्ञानिकों के मूल्यो पर प्रमाणित की जा चुकी है।

कहते है हर मनुष्य जो जन्म लेता है जन्म से ही शुद्र होता है व संस्कार ही इंसान को ब्राह्मण बनाते है। ब्राह्मण कर्म कांड करने वाला ही नहीं होता बल्कि 16 संस्कार करने वाला भी ब्राह्मण तुल्य माना गया है। चाहे वो किसी भी जाति का क्यों न हो। हिन्दू धर्म में कोई ऐसा इंसान नहीं जिसने अपने पूरे जीवनकाल में 16 न सही पर दो या चार संस्कार तो अवश्य ही किये है।

अगर कोई ये माने की यह सब व्यर्थ की बात है तो उस इंसान से मेरी यह गुजारिश है की 16 संस्कार क्या है इसके बारे में पूर्ण लेख आगे है कृपया इसे पढ़े पढने के बाद ठन्डे मन से सोच विचार कर अपने मन को ही बता दे कि यह तो सत्य है, जी हाँ, यह सत्य है हाँ कुछ विधि विधान अलग हो सकते है पर इस का मूल तो संस्कार ही है।

1
गर्भधान संस्कारः
-----------------
दाम्पत्य जीवन का सबसे बड़ा उदेश्य यही है की श्रेष्ठ गुणो वाली ,शरीर से स्वस्थ ,चरित्रवान ,संस्कारी संतान को उत्पन्न करना जो आगे चल कर अपने व अपने परिवार के साथ साथ समाज का कल्याण भी कर सके। यूँ तो प्राकृतिक रूप से उचित समय पर सम्भोग करने से संतान का होना स्वाभाविक है पर कुछ दम्पति आज भी संतान उत्पन्न करने से पहले उस पर विचार करते है। कुछ तो डॉक्टर की सलाह ले कर कार्य करते है। जो कि आज के समय में जरुरी भी है पर साथ में गर्भ धारण से पूर्ण इस बात पर भी विचार करे जो गर्भधारण संस्कार में भी होती है। जिसमे गर्भधारण करने से पूर्व समय स्थान के अनुसार तिथि महूर्त का भी विशेष महत्व है वैसे तो कई मंत्रो का भी गर्भ धारण से पूर्व करना जरूरी होता है पर अक्सर देखा जाता है कि कोई कम ही ध्यान देता है इन बातो पर सर्व प्रथम तो माता पिता को अपनी होने वाली संतान के लिए मानसिक व शारीरिक रूप से तैयारी करनी पड़ती है, क्योकिं आने वाली संतान उनकी ही आत्मा का प्रतिरूप होती है। इस लिए ही पुत्री को आत्मजा व पुत्र को आत्मज कहते है सुश्रुत सहिंता के अनुसार और वेसे भी स्त्री व पुरुष जैसा आहार व्यवहार और अपनी इच्छा में संयुक्त होकर परसपर समागम करते है उनकी संतान भी उसी स्वभाव की उत्पन्न होती है।

आपने अक्सर देखा होगा की गर्भ धारण करने के बाद स्त्री के कमरे में सुबह उठते ही उसकी आँखो के सामने सुन्दर शिशु का चित्र लगा देते है जो उसके मन भाव से उसी प्रकार की संतान चाहने का रूप होता है। यह सही है पर अपने कुल के या किसी महांपुरुष का चित्र भी उसके आवभाव का बच्चे पर प्रभाव छोड़ता है जो बच्चे को अपनी माँ के मन से पैदा हुए विचारो से प्राप्त होता है।

पुत्र व पुत्री की प्राप्ति के लिए हमारे ग्रंथों में बहुत कुछ दिया है हमने अपने पहले लेख में भी इसका काफी विवरण दिया है (कैसे पा सकते है मनवांछित औलाद ) धर्म परायण के अनुसार पति पत्नी को गर्भ धारण करने से पूर्व अपने व दुसरो के हित के लिए व उस बच्चे के लिए जो अभी मन में है बीज नही बना उसके लिए अपने गुरु व बड़ो आदि का आशिर्वाद लेकर प्रार्थना करनी चाहिए। रात्रि के तीसरे पहर गर्भ धारण करने से संतान हरिभक्त व धर्म परायण होती है। इस के लिए वर्जित समय भी है जो काफी हद तक हम अपने उस लेख में भी बता चुके है पर कुछ जानकारी यहां भी बता देते है कि योग्य संतान के लिए वर्जित समय जैसे धर्म के समय , गन्दगी या मालिनता वाला स्थान ,सुबह या सांय के समय ,चिंता क्रोध व बुरे विचारो के साथ ,श्राध या प्रदोष काल में किसी दुसरे के घर ,मंदिर ,धर्मशाला ,शमशानघाट ,नदी किनारे ,समुद्र के मध्य गति से दौड़ते किसी वाहन के मध्य ,घर में शोक ,या काफी शोर के मध्य इन सब बातो व समय ,स्थान को (वर्जित )ध्यान में रख कर ही गर्भ धारण करना चाहिये। गर्भ धारण संस्कार करने से पहले औरत को चाहिये की ऋतुकाल में रजोदर्शन के बाद स्नान कर पूर्वकाल रहित चौथे दिन या सम दिन में महॅूर्त विचार कर देवी देवताओं का पूजन कर सोभाग्यशाली व पुत्रवान स्त्रिओं से फल ,नारियल आदि लेकर आमवस्या की अधिष्ट देवी व सरस्वती के मंत्र पाठ पुजा प्रार्थना कर व बाकी देवी ,देवता ,ग्रह ,नक्षत्र देवताओं को अपने गर्भ को पुष्ट करने हेतु प्रार्थना कर पुनः ब्राहम्णो को दान व भोजन का सेवन करवा कर सुंदर व गुणवान बच्चे के लिए आशिर्वाद लेना चाहिये।

2
पुंसवन सस्कार:

पुसंवन सस्कार 16 सस्कारो में दूसरे स्थान पर आता है जिसका गहरा समबन्ध तो पहले सस्कार से ही है जैसे कोई भी किसान समय व रितु को देख कर उस में बीज बोता है व बीज बोने के बाद उस पौधे की पूर्ण देखभाल करता है ताकि वो छोटा सा पौधा कही आने वाले मौसम की मार में ही न मर जाये जैसे किसान की सोच पौधे को पैदा करने तक उसकी रक्ष करनी होती है वैसे ही पहले सस्कार को करने के बाद दूसरे संस्कार को भी जरूरी माना गया है. पुंसवन संस्कार को गर्भ धारण करने के बाद तीसरे महीने करना चाहिए. वैसे तो इसे दूसरे महीने के अन्त में या तीसरे महीने में शुभ महुर्त को देख कर करना चाहिये. इस संस्कार को करने का कारण मुख पुत्र रत्न की प्राप्ती के लिए किया जाता है, पर आज के समय में हमारा अनुभव खता है की पुत्र हो या पुत्री दोनों ही समान है जहाँ यह संस्कार पुत्र के लिए कर सकते है तो पुत्री के लिए क्यों नही कर सकते आज पुत्री भी तो पुत्रो से कम नही है. मैने इस संस्कार को करने का उदेश्य यह है की बच्चे के गर्भ में रहते तीसरे महीने लिंग का निर्धरण होता है जिससे उसके अंगो का विकास होना यह संस्कार की विधि से उसे पुर्ण व स्वास्थ्य अंगो के निर्माण के लिए किया जाता है इस समय में शास्त्र के मुताबिक गर्भनी को विशेष बरगद के अकुंश को दूध में पीस कर इसका रस पुत्र के लिए दक्षिण व पुत्री के लिए वाम नास पुट में डालने का विधान है जैसे हमने अपने पहले लेख में भी नासिका के बारे में बताया है वैसे ही इसका नियम है इसके लिए गर्भनी को चाहिये की गणेश आदि देवताओं का पुजन कर स्वास्थ्य अंगों की प्रार्थना करे व वरुण देव ,अशिवन कुमार ,वायु व सब पुरुष देवता ,इस गर्भ में पल रहे बच्चे के अगों को पुर्ण विकसित करे व जन्म लेने तक इसकी रक्षा करते रहे. उसी प्रार्थना को करते हुये गायत्री मंत्रो से किसी अच्छे विद्वान् पण्डित से गायत्री मंत्र देसी घी की रुक सो आठ आरती दे कर ब्राह्मण को भोजन व दान दे कर आशिर्वाद गृहण करे ऐसा करके दूसरे संस्कार को संपन्न किया जाता है .

3
सीमन्तोन्यन संस्कार:

यह संस्कार भी गर्भिणी स्त्री के पेट में पल रहे बच्चे के लिए ही किया जाता है इस समय में गर्भिणी स्त्री को शुद्ध व प्रसन्न मन से यह संस्कार करना चाहिये बालक के जन्म तक हर समय प्रसन्न रहना चाहिये इस संस्कार को गर्भ में पल रहे बालक की रक्षा करनी इच्छा की पूर्ति के लिए पांचवे या छटे मास में शुभ महुर्त में देवताओ का पुजन आदि कर पुरुष वाचक नक्षत्र में शुक्ल पक्ष में व गर्भनी की कुंडली हो तो चन्द्र गृह आदि की अनुकूलता को देख कर करना चाहिये जिससे बच्चे के अंग विकसित हो रहे हो उनकी पुष्टता व स्वास्थ्य के लिए जरूरी है क्योकि पांचवे व छटे महीने में इन अंगो में चेतना का संचार बध जाता है ऐसे में पति पत्नी दोनों विधि पूर्वक इसको करना चाहिये पुर्ण विधि के लिए किसी भी विद्वान् ब्राह्मण से संपर्क कर सकते है ऐसे में ब्राह्मण तो विधि पुर्वक करेगा साथ में गर्भनी की सुहागन स्त्रियो द्वारा मांग भरी जाती है व उसे उत्तम भोजन कराया जाता है व उसके बच्चे के स्वास्थ्य के लिए मिल कर प्रार्थना कर गर्भनी को प्रसन्न चित रखा जाता है ब्राह्मण को विधि के बाद दान दक्षिणा दे कर आर्शिवाद लेना इस संस्कार का नियम है इस संस्कार के समय काफी बाते गर्भनी को बताई जाती है जो की बच्चे के हित के लिए होती है पांचवे -छटे महीने के बाद वैसे भी गर्भनी को कई हिदायते देते है क्योकि उस समय गर्भ में बच्चा अपना रूप बना चुका होता है ऐसे में कोई किसी भी प्रकार का दोष उसके अंगो को नुकसान न दे.

4
जात कर्म संस्कार :

जात कर्म उस समय होता है बालक का जन्म होता है उस समय घर व अपने आप में स्वछता रखनी होती है पर आज कल समय में तो अधिकाश बालक घर की बजाय होस्पीटल में ही जन्म लेते है, सो अधिकाश कार्य होस्पीटल में ही हो जाता है जैसे बालक का स्नान ,नाल छिद्र ,दुध पिलाना ,बच्चे व माँ के स्वास्थ्य के लिए कार्य करना बच्चे को माँ के गर्भ से अलग होने पर किसी शुभ हाथो से शहद आदि का देना यह सारे- के सारे वही पर ही हो जाती है इसी में छठी पुजन विधान है जो की कई बार होस्पीटल या घर पर किसी बड़े बजुर्ग द्वारा ही कर दिया जाता है जिसका सबसे बड़ा कारण यह होता है की बच्चे के जन्म के बाद उसके हाथ ,पैर ,सिर , धड़ आदि अंगो का पुर्ण विकास हो व यह अंग निरोगी रहे.ऐसे समय में माँ व बच्चे को उत्तम भोजन दिया जाता है माँ को भोजन उसके शरीर व मानसिक संबन्धि व बच्चे को पुर्ण रूप से स्वास्थ्य करने हेतु कार्य भी किये जाते है. कुछ लोग जातकर्म संस्कार को पुर्ण विधि से करते है क्योकि उस समय घर पर नये बच्चे का आगमन का समय होता है व हर तरफ से बधाइयां मिलती है पिता व माँ उस बच्चे की पुर्ण ख़ुशी के महोल में होते है ऐसे में दान धर्म पाठ पुजा आदि ख़ुशी के कार्य संपन्न कर बच्चे के भविष्य की सोच पर विचार शुरू हो जाता है ऐसे समय में बच्चे के शरीर से गंध निकलती है वो हर किसी को आकर्षित करती है व खास कर उस समय बच्चे की पूरी रक्षा की जाती है कही कोई जानवर आदि उस बच्चे को नुकसान न पहुचाये .दान धर्म द्वारा इस संस्कार को संपन्न किया जाता है.

5
नामकरण संस्कार :

यह संस्कार पैदा हुये बच्चे के माता पिता अपने बच्चे के नाम करण के लिए करते है इस संसकार को जन्म से 11 दिन बाद किया जाता है उस समय किसी ब्राह्मण द्वारा विधि वत पाठ हवन यग आदि करवा कर देवताओ ब्राह्मण व आये हुये संबंधियो को प्रसन्न कर बच्चे को उसके नाम से जानने हेतु नामकरण करवाया जाता है उस समय ब्राह्मण गृह नक्षत्र योग करण गण योनि पाया आदि का जिस समय बच्चा पैदा हुआ था उस आधार पर जन्म कुंडली बना कर राशि व उसके स्वामी के बारे में माता पिता को बता देते है कई बातो में न जाकर अपने आप ही बच्चे का नाम तय कर लेते है तो कई लोग सिद्ध महापुरषो के नाम पर अपने बच्चे का नाम रख लेते है यह वही नाम करण संस्कार है जो जीवन भर बच्चे को उस नाम से जाना जाता है

6
निंक्रमण संस्कार :

यह सस्कार उन 16 संस्कार में से छटे स्थान पर आता है इसे भी बच्चे के लिए किया जाता है इस सस्कार को चतुर्थ मास में चन्द्र शुक्ति पूर्व दिशा में यात्रोक्त शुभ दिन में किया जाता है इसमे सबसे पहले बच्चे को सूर्य दर्शन करवाये जाती है व अन्य गृह देवी देवताओ को नमस्कार व दर्शन करवा कर बच्चे को रात्रि समय चन्द्र दर्शन करवाये जाते है ऐसा इस लिए किया जाता है की चार मास बाद बच्चे का शरीर इतना स्वास्थ्य व पुष्ट हो चुका होता है वो इन सब के वेग को सह सके व उसी समय के दोरान बच्चे को बाहर भी लाया जाता है जो की दुनिया को व दिन रात की स्थिति को देख सके ऐसे में पूर्ण विधिवत यह संस्कार किसी ब्राह्मण सारे गृह व देवताओ के पुजन से किया जाता है उस समय सूर्य देव को जल ,दुध ,गन्ध ,फल आदि समर्पण किये जाता है व मंत्रो द्वारा पाठ पुजा सम्पन कर ब्रह्मणो को दान दक्षिणा दे कर ख़ुशी मनाई जाती है और कामना करते हुये उसे हर संकट से दुर रखने के लिए ईश्वर से प्रार्थना कर यह संस्कार संपन्न किया जाता है .

7
अन्न प्राशन संस्कार:

छठे संस्कार को पुर्ण करने के बाद सातवा संस्कार अन्न प्राशन संस्कार कहलाता है इसे बालक के जन्म के बाद छठे व आठवे माह में व कन्या का पांचवे व सातवे माह में किया जाता है इस संस्कार से बच्चे के शरीर को पुष्ट करने व उसकी रुचि का परिचय प्राप्त किया जाता है इसका मतलब स्पष्ट रूप से यह है की उसे पेय पदार्थ दुध आदि के इलावा खादय पदार्थ देना प्रारंम्भ किया जाता है यह संस्कार जन्म लग्न जन्म गृह व नक्षत्रो को देखते हुये शुभ महुर्त में करने के लिए हमारे विधवानो ने खास संस्कार को करने के लिए पाठ पुजा कुल देव की पुजा या यग - हवन आदि से विधिवत करना चाहिये उस समय बच्चे को मीठा - नमकिन - कड़वा , आग्ल युक्त रस नर्म भोजन आदि से प्रारम्भ करना चाहिये . असल इस आयु में बच्चे के दांत निकलने लगते है और उसकी पाचन क्रिया भी सुदृढ़ हो जाती है दांत निकलते समय बच्चे की शरीरिक मेहनत बहुत ज्यादा हो जाती है की उसके शरीर को कमजोर करना शुरू कर देती है ऐसे में शरीरिक कमजोरी केवल माँ का दुध - पूरी नही कर पाता तो ऐसे में उसे भोजन दिया जाता हैजो शरीरिक कमजोरी को दुर कर बच्चे का स्वास्थ्य बनाता है अन्नप्राशन संस्कार का सही मतलब बच्चे को पूर्ण स्वास्थ्य बनाने की पहली विधि माना गया है ऐसे में जो भोजन बच्चे को दिया जाता है वही भोजन की वजह से बच्चे का स्वभाव व आव - भाव आने शुरू हो जाते है हिन्दु धर्म में इस संस्कार में सात्विक भोजन ही बच्चे को परोसा जाता है.

8
मुंडन संस्कार :

यह संस्कार चूड़ कर्म या मुंडन संस्कार के नाम से जाना जाता है यह संस्कार शिशु के जन्म के पहले वर्ष से लेकर सातवे वर्ष तक भी किया जा सकता है इस संस्कार से बच्चे का रूप निखर जाता है क्योकि शिशु के सिर के बाल प्रथम बार उस्तरे से उतारे जाते है मुण्डन संस्कार भी समय व महुर्त देख कर अपने किसी धार्मिक स्थान पर किया जाता है ताकि उस स्थान पर जब शिशु के प्रथम बार बाल उतारे जाने से उसके मन के संस्कारो का भी शमन हो सके. वैसे भी यह जरूरी है आपने अकसर देखा होगा की जन्म की समय बच्चे की सिर में मैल रूपी पपड़ी जमी होती है जो धीरे- धीरे अपना स्थान छोड़ती है तो वह बच्चे की बालो के साथ ही रहती है.

9
कर्ण वेद संस्कार :

कर्ण वेध संस्कार या कर्ण छेदन तीसरे , पांचवे आदि विषम वर्षो में किया जाता है यह हमारे शास्त्रो का मानना है कर्ण छेदन संस्कार के लिए जन्म कुण्डली में गृह व दिन नक्षत्र आदि का महुर्त देख कर किसी ब्राह्मण से पाठ पुजा करवा कर किया जाता है उस समय पहले बालक को कुछ मीठा दिया जाता है खाने के लिए फिर ब्राह्मण वैश्य वर्ण में चांदी की सुई से क्षत्रिय में सोने की सुई से व शुद्र में लोहे की सुई से किया जाता है शुभ महुर्त में बालक के दोनों कानो में छिद्र करके कुंडल पहनाये जाते है लड़के के दांये व लड़कियों के बांये कान में पहले छेद किया जाता है पर आज के युग में यह संस्कार लोग अपनी मर्जी से बिना समय देख कर रहे है वो भी लड़कियों के लिए लड़के के लिए यह करना जरूरी नही समझते बल्कि शास्त्र दोनों को ही करने के लिए कहता है वर्त्तमान में कुछ बदलाव जरुर हुए है लड़का हो या लड़की कर्ण छेदन करवा रही है पर बिना महुर्त बिना विधि के सिर्फ फैशन के लिए मान्यता है की सूर्य की किरणे कानो में छेद से प्रवेश पा कर शिशु तो तेज सपन्न बनाती है मस्तिक तेज होता है बच्चे को हिस्टीरियो व तनाव से मुक्ति मिलती है लड़कियों का मासिक धर्म सही रहता है.

10
विद्यारम्भ या अक्षरभ संस्कार:

यह संस्कार बच्चे के 5 वर्ष की आयु में किया जाता है क्योकि उस समय तक बच्चे का तन स्वास्थ्य व बुद्धि त्रीव हो चुकी होती है मानसिक विकास बड़ी जल्दी से बढ़ता है हर बात जो वो सुनता है देखता है अपने आप वो उस बारे में पुर्ण बताने भी लगता है ऐसी में यह संस्कार कर उसे विद्यारम्भ करवाई जाती है और विधि के पहले अक्षरो का ज्ञान दिया जाता है इसके लिए विधिवत महुर्त निकाल कर पुजा पाठ कर यह कार्य सम्पन्न किया जाता है क्योकि विद्या माता की भांति रक्षा व पिता की तरह हितकारी कार्यो में नियोजित करती है बच्चे के जीवन में बाहर की दुनिया के बारे में उसे बताती है अच्छा बुरा जान कर अपने फैसले करने की बुद्धि प्रदान करती है अच्छा बुरा जानने की समझ देती है विद्या की देवी सरस्वती है व उसको नमन कर इस कार्य को शुरू करना बच्चे को सिखाया जाता है व माता - पिता के इलावा गुरु की उसके जीवन में क्या अहमियत है इसका ज्ञान दिया जाता है.

11
यज्ञोपवीत संस्कार :

ज्योतिष शास्त्रोक्त समय में आठवे से सोलह वर्ष के भीतर यह संस्कार किया जाता है बालक की आयु वृद्धि हेतु गायत्री तथा वेद पाठ का अधिकारी बनने के लिए इस संस्कार की अतयंत आवश्यकता होती है यह माना जाता है की प्रथम जन्म माता के उदर से होता है व द्वितीय जन्म यज्ञोपवीत धारण से होता है इस समय बालक को पूर्ण विधि -विधान महुर्त देख कर पूर्ण पाठ पुजा कर्म करके यज्ञोपवीत धारण करवाया जाता है मान्यता है कि माता के गर्भ से जो जन्म होता है उस पर जन्म जन्मांतरों के संस्कार हावी रहते है यज्ञोपवीत धारण से इन संस्कारो का शमन करके अच्छे संस्कार स्थायी बनाए जाते है इस लिए ही इस को द्वितीय जन्म कहते है इस लिये ही ब्राह्मण , वैश्य ,क्षत्रिय तीनो द्विजाति कहे है यज्ञोपवीत संस्कार के बाद ही बालक को धर्म के कार्य करने का अधिकार मिलता है आपके अक्सर देखा होगा कि कई लोगो के गले में सफेद रंग का केई लडीयो वाला धागा पहना होता है उसे ही यज्ञोपवीत कहते है यज्ञोपवीत की तीन लड़े होती है जो तीन ऋनो का बौद्ध करती है ब्राह्मण से ऋषि ऋण , यज्ञ से देव व गृहस्य से पितु ऋण चुकाया जाता है यज्ञोपवीत की नो सदगुणो के प्रतीक माना जाता है इन नो सूत्रो में नो देवता वास करते है समय - समय पर शुभ महुर्त देख कर यज्ञोपवीत बदला भी जाता है व पुराने यज्ञोपवीत को जल प्रवाह कर देते है शोच आदि कार्यो में यज्ञोपवीत का विशेष ध्यान रखा जाता है अन्यथा यह दूशित हो जाता है यज्ञोपवीत धारण करने वाले के अन्दर इन गुणो का होना भी जरूरी है जैसे ह्रदय में प्रेम ,व्यवहार में सरलता ,वाणी में मधुरता ,पवित्र भावनाए , कला व सौंदर्य का बोध ,उदारता ,सेवा भावना ,शिष्टाचार और अनुशासन यही सुख जीवन का मूल आधार है यज्ञोपवीत पहने हुए जातक में ये गुण अपने आप भी आ जाते है

12
वेदारंभ संस्कार :

हिंदू धर्म में ये सभी संस्कार करने के बाद जब बालक यज्ञोपवीत संस्कार कर लेता है तो उसे वैदो का ज्ञान प्राप्त करने का हक मिल जाता है तो उस के बाद यह संस्कार कर वेदांरभ विधि से वैदो का समरण करवाया जाता है इसमे भी खास कर दिन वार समय व महुर्त के साथ - साथ गुरु कि शरण में वेदारम्भ होना शुभ माना गया है वेद आरम्भ करने से पहले जातक को गुरु व शिष्य के मध्य वैदिक रितिरिवाज भी सिखाये जाते है उसके बाद गुरु अपने शिष्य को वेद आरम्भ करवाता है जो जीवन भर उसका साथ देते है

13
केशांत संस्कार :

पुराने समय में जब बालक वेद पढने जाता था तो उसके अपने नाखुन व बाल कटवाने और दाढ़ी बनवाने कि अनुमति नही होती थी पर गुरु के द्वारा वेद पाठ पूर्ण होने यानी वैदो की शिक्षा पाने के बाद शुभ महुर्त में अपने गुरु या आचार्य से अनुमति लेकर यह कार्य करता था, जिसमे वह नाखुन बाल व् दाढी बनवाकर स्नान कर यज्ञ व पाठ पुजा करके देवताओ को प्रसन्न कर सके.

14
समावर्त्तन संस्कार :

यह संस्कार एक प्रकार से देखा जाये तो बालक की पूर्ण विधि करने के बाद उसे उच्चे पदो पर ले जाने के लिये किया जाता है यह ब्रहाचर्य व्रत के समापन व विधार्थी जीवन के अंत का सुचक माना गया है आम तोर पर यह संस्कार 25 वर्ष की आयु में होता है उस समय युवा पुरुष उत्तम वस्त्रो को धारण कर सब विद्या से प्रकाशित ब्रह्यचारी के रूप से निकल कर जब गृहाश्रम में आता है तब वह प्रसिद्ध होकर मंगलकारी शोभायुक्त होता है. उस समय गुरु या आचार्य दी गयी सिद्धि के लिए पाठ पुजा व यज्ञ कर्म करवा कर गृहस्थ की मूल भूत जरुरतो को पूरा करने की लिए आशिर्वाद देते है व देवी देवताओ से उसके सुखी जीवन की कामना करते हुए उसे विदा करते है.उस समय में शिष्य अपने गुरु या आचार्य की मान मर्यादा को निभाते हुए अपनी समर्था की अनुसार दक्षिणा दे कर आशीर्वाद प्राप्त करता है .

15
विवाह संस्कार :

सोलह संस्कारो में सबसे महत्वपूर्ण संस्कार विवाह है पुरुषत्व और स्त्रीत्व का सयोग तथा सृष्टि का मूल कारण ही विवाह संस्कार है विवाह संस्कार भिन्न - भिन्न रीतियो के द्वारा सम्पन्न होता है हर जाती में विवाह संस्कार करने की विधि अलग - अलग है पर हिन्दुओ में होने वाले आठ प्रकार के विवाह है ब्रहमा,दैव ,आर्ष ,प्रजापत्य ,आसुर ,गांधर्व ,राक्षस ,पैशाच ये आठ प्रकार के विवाह मनुस्मृति में बताये गये है ब्राह्म अर्थात कन्या को ससुज्जित कर वर को बुलाकर कन्या दान करना, दैव अर्थात ऋत्विक को वस्त्र आदि से ससुज्जित कर कन्या देना, तथा यज्ञादिक कार्य के लिए वर से गौ आदि लेकर कन्यादान करना,आर्ष वर कन्या को गृहस्थ धर्म का पालन करने की आज्ञा देना, प्रजापत्य कन्या के कुटुम्बियों को धन देकर जो विवाह किया जाता है आसुर विवाह, वर कन्या के परसपर अनुराग से जो विवाह किया जाता है गन्धर्व विवाह, कन्या को बलपूर्वक हरण किया जाता है राक्षस विवाह ,कन्या के साथ बलपूर्वक जो सम्बन्ध किया जाता है उसे पैशाच विवाह कहते है उपरोक्त आठ प्रकार के विवाहो में प्रथम चार विवाह करने की शास्त्र आज्ञा देता है तथा चार शेष की निन्दा की गई है प्रथम कहे चार विवाहो में भी हिन्दु शास्त्रो में ब्राह्मा विवाह को पवित्र माना गया है कन्यादान की दिन माता पिता को उपवास करना चाहिय क्योकि यदि असमर्थ हो जल ,मूल ,फल , दूध आदि का उपयोग कर सकते है

16
अंतयेष्टि संस्कार:

यह संस्कार सबसे आखिर में होता है जन्म से लेकर मुत्यु तक जो 16 संस्कारो के बारे में आप ने जाना है उन्ही में से यह एक संस्कार है जो की जातक की मुत्यु के समय उनके परिवार के लोग करते है मनुष्य के प्राण निकल जाने पर मृत शरीर को अग्नि को समर्पित करके अत्येष्टि संस्कार करके का विधान है इस संस्कार के पीछे मुख्य उदेश्य है सभी सज्जन संबंधी मित्र आदि अंतिम विदाई देने हेतु अत्येष्टि में शामिल हो व जीवन का उदेश्य समझे क्योकि उन्होंने भी तो भविष्य में इसी संस्कार से गुजरना जो है मानव शरीर पांच तत्वो से मिलकर बना है व् इन्ही पांच तत्वो में वलीन भी हो जाना है हिन्दू धर्म में मान्यता है की मृत प्राणी की आत्मा उसके आस पास रहती है उसके इस मोह को समाप्त करने के लिए मृत शरीर को अग्नि में समर्पित क्र उसका मोह भंग कर दिया जाता है अत्येष्टि संस्कार में अग्नि देने के बाद कपाल क्रिया की जाती है जो हिन्दु धर्म में बहुत जरूरी है इस में खोपड़ी की हड्डी को चोट पहुचा कर मृत मानव की खोपड़ी खण्डित कर दी जाती है जो पूर्ण रूप से जल सके क्योकी मानव का यह अंग बहुत कठोर होता है . मृत शरीर के बाद अलग अलग तरह की क्रिया करके मानव की जली हुई हड्डीया जिन्हे फुल भी कहते है गति आदि करवा कर जल प्रवाह कर दिया जाता है और उसकी आत्मा की शान्ति के लिए पाठ पुजा भी करवाई जाती है यह कार्य घर का बड़ा बेटा ही करता है उसके यह करने से ही उस मानव की आत्मा को तृप्ति मिलती है.
सोलह संस्कार ही हमारा जीवन है
----------------------------------

हिन्दू धर्म में संस्कारवान होना बहुत जरुरी है। संस्कारवान मनुष्य को समाज में काफी मान सम्मान तो मिलता ही है व ईश्वर की कृपा सदा बनी रहती है। इन कारणो से ही मनुष्य का जीवन सुखी व धनी हो जाता है। माना जाता है कि जिस मनुष्य ने अपने जीवन काल में 16 के 16 संस्कारों को विधिवत कर लिया हो तो मरने के बाद भी ऐसा मनुष्य सुख भोगता हुआ अगले जन्म में भी सुखी रहता है।

हिन्दू धर्म के मुताबिक जीवन में विभिन्न अवसरों पर 16 संस्कार करने का विधान है। हमारे ऋषि मुनियो व कुछ ग्रथों के अनुसार 14 से लेकर 40 तक संस्कार बताये गये है, पर ज्यादातर विद्वानो ने 16 संस्कारों को ही महत्व दिया है। इनको पूरा करने से मन के विकार नष्ट हो कर मानव तन, मन व धन से सुखी होकर मोक्ष ही पाता है। संस्कारों के समय होने वाले कर्मकांड , हवन ,मन्त्र, पाठ, पूजा ,दान आदि की प्रक्रिया विज्ञानिकों के मूल्यो पर प्रमाणित की जा चुकी है।

कहते है हर मनुष्य जो जन्म लेता है जन्म से ही शुद्र होता है व संस्कार ही इंसान को ब्राह्मण बनाते है। ब्राह्मण कर्म कांड करने वाला ही नहीं होता बल्कि 16 संस्कार करने वाला भी ब्राह्मण तुल्य माना गया है। चाहे वो किसी भी जाति का क्यों न हो। हिन्दू धर्म में कोई ऐसा इंसान नहीं जिसने अपने पूरे जीवनकाल में 16 न सही पर दो या चार संस्कार तो अवश्य ही किये है।

अगर कोई ये माने की यह सब व्यर्थ की बात है तो उस इंसान से मेरी यह गुजारिश है की 16 संस्कार क्या है इसके बारे में पूर्ण लेख आगे है कृपया इसे पढ़े पढने के बाद ठन्डे मन से सोच विचार कर अपने मन को ही बता दे कि यह तो सत्य है, जी हाँ, यह सत्य है हाँ कुछ विधि विधान अलग हो सकते है पर इस का मूल तो संस्कार ही है।

1 गर्भधान संस्कारः
-----------------
दाम्पत्य जीवन का सबसे बड़ा उदेश्य यही है की श्रेष्ठ गुणो वाली ,शरीर से स्वस्थ ,चरित्रवान ,संस्कारी संतान को उत्पन्न करना जो आगे चल कर अपने व अपने परिवार के साथ साथ समाज का कल्याण भी कर सके। यूँ तो प्राकृतिक रूप से उचित समय पर सम्भोग करने से संतान का होना स्वाभाविक है पर कुछ दम्पति आज भी संतान उत्पन्न करने से पहले उस पर विचार करते है। कुछ तो डॉक्टर की सलाह ले कर कार्य करते है। जो कि आज के समय में जरुरी भी है पर साथ में गर्भ धारण से पूर्ण इस बात पर भी विचार करे जो गर्भधारण संस्कार में भी होती है। जिसमे गर्भधारण करने से पूर्व समय स्थान के अनुसार तिथि महूर्त का भी विशेष महत्व है वैसे तो कई मंत्रो का भी गर्भ धारण से पूर्व करना जरूरी होता है पर अक्सर देखा जाता है कि कोई कम ही ध्यान देता है इन बातो पर सर्व प्रथम तो माता पिता को अपनी होने वाली संतान के लिए मानसिक व शारीरिक रूप से तैयारी करनी पड़ती है, क्योकिं आने वाली संतान उनकी ही आत्मा का प्रतिरूप होती है। इस लिए ही पुत्री को आत्मजा व पुत्र को आत्मज कहते है सुश्रुत सहिंता के अनुसार और वेसे भी स्त्री व पुरुष जैसा आहार व्यवहार और अपनी इच्छा में संयुक्त होकर परसपर समागम करते है उनकी संतान भी उसी स्वभाव की उत्पन्न होती है।

आपने अक्सर देखा होगा की गर्भ धारण करने के बाद स्त्री के कमरे में सुबह उठते ही उसकी आँखो के सामने सुन्दर शिशु का चित्र लगा देते है जो उसके मन भाव से उसी प्रकार की संतान चाहने का रूप होता है। यह सही है पर अपने कुल के या किसी महांपुरुष का चित्र भी उसके आवभाव का बच्चे पर प्रभाव छोड़ता है जो बच्चे को अपनी माँ के मन से पैदा हुए विचारो से प्राप्त होता है।

पुत्र व पुत्री की प्राप्ति के लिए हमारे ग्रंथों में बहुत कुछ दिया है हमने अपने पहले लेख में भी इसका काफी विवरण दिया है (कैसे पा सकते है मनवांछित औलाद ) धर्म परायण के अनुसार पति पत्नी को गर्भ धारण करने से पूर्व अपने व दुसरो के हित के लिए व उस बच्चे के लिए जो अभी मन में है बीज नही बना उसके लिए अपने गुरु व बड़ो आदि का आशिर्वाद लेकर प्रार्थना करनी चाहिए। रात्रि के तीसरे पहर गर्भ धारण करने से संतान हरिभक्त व धर्म परायण होती है। इस के लिए वर्जित समय भी है जो काफी हद तक हम अपने उस लेख में भी बता चुके है पर कुछ जानकारी यहां भी बता देते है कि योग्य संतान के लिए वर्जित समय जैसे धर्म के समय , गन्दगी या मालिनता वाला स्थान ,सुबह या सांय के समय ,चिंता क्रोध व बुरे विचारो के साथ ,श्राध या प्रदोष काल में किसी दुसरे के घर ,मंदिर ,धर्मशाला ,शमशानघाट ,नदी किनारे ,समुद्र के मध्य गति से दौड़ते किसी वाहन के मध्य ,घर में शोक ,या काफी शोर के मध्य इन सब बातो व समय ,स्थान को (वर्जित )ध्यान में रख कर ही गर्भ धारण करना चाहिये। गर्भ धारण संस्कार करने से पहले औरत को चाहिये की ऋतुकाल में रजोदर्शन के बाद स्नान कर पूर्वकाल रहित चौथे दिन या सम दिन में महॅूर्त विचार कर देवी देवताओं का पूजन कर सोभाग्यशाली व पुत्रवान स्त्रिओं से फल ,नारियल आदि लेकर आमवस्या की अधिष्ट देवी व सरस्वती के मंत्र पाठ पुजा प्रार्थना कर व बाकी देवी ,देवता ,ग्रह ,नक्षत्र देवताओं को अपने गर्भ को पुष्ट करने हेतु प्रार्थना कर पुनः ब्राहम्णो को दान व भोजन का सेवन करवा कर सुंदर व गुणवान बच्चे के लिए आशिर्वाद लेना चाहिये।

2 पुंसवन सस्कार:

पुसंवन सस्कार 16 सस्कारो में दूसरे स्थान पर आता है जिसका गहरा समबन्ध तो पहले सस्कार से ही है जैसे कोई भी किसान समय व रितु को देख कर उस में बीज बोता है व बीज बोने के बाद उस पौधे की पूर्ण देखभाल करता है ताकि वो छोटा सा पौधा कही आने वाले मौसम की मार में ही न मर जाये जैसे किसान की सोच पौधे को पैदा करने तक उसकी रक्ष करनी होती है वैसे ही पहले सस्कार को करने के बाद दूसरे संस्कार को भी जरूरी माना गया है. पुंसवन संस्कार को गर्भ धारण करने के बाद तीसरे महीने करना चाहिए. वैसे तो इसे दूसरे महीने के अन्त में या तीसरे महीने में शुभ महुर्त को देख कर करना चाहिये. इस संस्कार को करने का कारण मुख पुत्र रत्न की प्राप्ती के लिए किया जाता है, पर आज के समय में हमारा अनुभव खता है की पुत्र हो या पुत्री दोनों ही समान है जहाँ यह संस्कार पुत्र के लिए कर सकते है तो पुत्री के लिए क्यों नही कर सकते आज पुत्री भी तो पुत्रो से कम नही है. मैने इस संस्कार को करने का उदेश्य यह है की बच्चे के गर्भ में रहते तीसरे महीने लिंग का निर्धरण होता है जिससे उसके अंगो का विकास होना यह संस्कार की विधि से उसे पुर्ण व स्वास्थ्य अंगो के निर्माण के लिए किया जाता है इस समय में शास्त्र के मुताबिक गर्भनी को विशेष बरगद के अकुंश को दूध में पीस कर इसका रस पुत्र के लिए दक्षिण व पुत्री के लिए वाम नास पुट में डालने का विधान है जैसे हमने अपने पहले लेख में भी नासिका के बारे में बताया है वैसे ही इसका नियम है इसके लिए गर्भनी को चाहिये की गणेश आदि देवताओं का पुजन कर स्वास्थ्य अंगों की प्रार्थना करे व वरुण देव ,अशिवन कुमार ,वायु व सब पुरुष देवता ,इस गर्भ में पल रहे बच्चे के अगों को पुर्ण विकसित करे व जन्म लेने तक इसकी रक्षा करते रहे. उसी प्रार्थना को करते हुये गायत्री मंत्रो से किसी अच्छे विद्वान् पण्डित से गायत्री मंत्र देसी घी की रुक सो आठ आरती दे कर ब्राह्मण को भोजन व दान दे कर आशिर्वाद गृहण करे ऐसा करके दूसरे संस्कार को संपन्न किया जाता है .

3 सीमन्तोन्यन संस्कार:

यह संस्कार भी गर्भिणी स्त्री के पेट में पल रहे बच्चे के लिए ही किया जाता है इस समय में गर्भिणी स्त्री को शुद्ध व प्रसन्न मन से यह संस्कार करना चाहिये बालक के जन्म तक हर समय प्रसन्न रहना चाहिये इस संस्कार को गर्भ में पल रहे बालक की रक्षा करनी इच्छा की पूर्ति के लिए पांचवे या छटे मास में शुभ महुर्त में देवताओ का पुजन आदि कर पुरुष वाचक नक्षत्र में शुक्ल पक्ष में व गर्भनी की कुंडली हो तो चन्द्र गृह आदि की अनुकूलता को देख कर करना चाहिये जिससे बच्चे के अंग विकसित हो रहे हो उनकी पुष्टता व स्वास्थ्य के लिए जरूरी है क्योकि पांचवे व छटे महीने में इन अंगो में चेतना का संचार बध जाता है ऐसे में पति पत्नी दोनों विधि पूर्वक इसको करना चाहिये पुर्ण विधि के लिए किसी भी विद्वान् ब्राह्मण से संपर्क कर सकते है ऐसे में ब्राह्मण तो विधि पुर्वक करेगा साथ में गर्भनी की सुहागन स्त्रियो द्वारा मांग भरी जाती है व उसे उत्तम भोजन कराया जाता है व उसके बच्चे के स्वास्थ्य के लिए मिल कर प्रार्थना कर गर्भनी को प्रसन्न चित रखा जाता है ब्राह्मण को विधि के बाद दान दक्षिणा दे कर आर्शिवाद लेना इस संस्कार का नियम है इस संस्कार के समय काफी बाते गर्भनी को बताई जाती है जो की बच्चे के हित के लिए होती है पांचवे -छटे महीने के बाद वैसे भी गर्भनी को कई हिदायते देते है क्योकि उस समय गर्भ में बच्चा अपना रूप बना चुका होता है ऐसे में कोई किसी भी प्रकार का दोष उसके अंगो को नुकसान न दे.

4 जात कर्म संस्कार :

जात कर्म उस समय होता है बालक का जन्म होता है उस समय घर व अपने आप में स्वछता रखनी होती है पर आज कल समय में तो अधिकाश बालक घर की बजाय होस्पीटल में ही जन्म लेते है, सो अधिकाश कार्य होस्पीटल में ही हो जाता है जैसे बालक का स्नान ,नाल छिद्र ,दुध पिलाना ,बच्चे व माँ के स्वास्थ्य के लिए कार्य करना बच्चे को माँ के गर्भ से अलग होने पर किसी शुभ हाथो से शहद आदि का देना यह सारे- के सारे वही पर ही हो जाती है इसी में छठी पुजन विधान है जो की कई बार होस्पीटल या घर पर किसी बड़े बजुर्ग द्वारा ही कर दिया जाता है जिसका सबसे बड़ा कारण यह होता है की बच्चे के जन्म के बाद उसके हाथ ,पैर ,सिर , धड़ आदि अंगो का पुर्ण विकास हो व यह अंग निरोगी रहे.ऐसे समय में माँ व बच्चे को उत्तम भोजन दिया जाता है माँ को भोजन उसके शरीर व मानसिक संबन्धि व बच्चे को पुर्ण रूप से स्वास्थ्य करने हेतु कार्य भी किये जाते है. कुछ लोग जातकर्म संस्कार को पुर्ण विधि से करते है क्योकि उस समय घर पर नये बच्चे का आगमन का समय होता है व हर तरफ से बधाइयां मिलती है पिता व माँ उस बच्चे की पुर्ण ख़ुशी के महोल में होते है ऐसे में दान धर्म पाठ पुजा आदि ख़ुशी के कार्य संपन्न कर बच्चे के भविष्य की सोच पर विचार शुरू हो जाता है ऐसे समय में बच्चे के शरीर से गंध निकलती है वो हर किसी को आकर्षित करती है व खास कर उस समय बच्चे की पूरी रक्षा की जाती है कही कोई जानवर आदि उस बच्चे को नुकसान न पहुचाये .दान धर्म द्वारा इस संस्कार को संपन्न किया जाता है.

5 नामकरण संस्कार :

यह संस्कार पैदा हुये बच्चे के माता पिता अपने बच्चे के नाम करण के लिए करते है इस संसकार को जन्म से 11 दिन बाद किया जाता है उस समय किसी ब्राह्मण द्वारा विधि वत पाठ हवन यग आदि करवा कर देवताओ ब्राह्मण व आये हुये संबंधियो को प्रसन्न कर बच्चे को उसके नाम से जानने हेतु नामकरण करवाया जाता है उस समय ब्राह्मण गृह नक्षत्र योग करण गण योनि पाया आदि का जिस समय बच्चा पैदा हुआ था उस आधार पर जन्म कुंडली बना कर राशि व उसके स्वामी के बारे में माता पिता को बता देते है कई बातो में न जाकर अपने आप ही बच्चे का नाम तय कर लेते है तो कई लोग सिद्ध महापुरषो के नाम पर अपने बच्चे का नाम रख लेते है यह वही नाम करण संस्कार है जो जीवन भर बच्चे को उस नाम से जाना जाता है

6 निंक्रमण संस्कार :

यह सस्कार उन 16 संस्कार में से छटे स्थान पर आता है इसे भी बच्चे के लिए किया जाता है इस सस्कार को चतुर्थ मास में चन्द्र शुक्ति पूर्व दिशा में यात्रोक्त शुभ दिन में किया जाता है इसमे सबसे पहले बच्चे को सूर्य दर्शन करवाये जाती है व अन्य गृह देवी देवताओ को नमस्कार व दर्शन करवा कर बच्चे को रात्रि समय चन्द्र दर्शन करवाये जाते है ऐसा इस लिए किया जाता है की चार मास बाद बच्चे का शरीर इतना स्वास्थ्य व पुष्ट हो चुका होता है वो इन सब के वेग को सह सके व उसी समय के दोरान बच्चे को बाहर भी लाया जाता है जो की दुनिया को व दिन रात की स्थिति को देख सके ऐसे में पूर्ण विधिवत यह संस्कार किसी ब्राह्मण सारे गृह व देवताओ के पुजन से किया जाता है उस समय सूर्य देव को जल ,दुध ,गन्ध ,फल आदि समर्पण किये जाता है व मंत्रो द्वारा पाठ पुजा सम्पन कर ब्रह्मणो को दान दक्षिणा दे कर ख़ुशी मनाई जाती है और कामना करते हुये उसे हर संकट से दुर रखने के लिए ईश्वर से प्रार्थना कर यह संस्कार संपन्न किया जाता है .

7 अन्न प्राशन संस्कार:

छठे संस्कार को पुर्ण करने के बाद सातवा संस्कार अन्न प्राशन संस्कार कहलाता है इसे बालक के जन्म के बाद छठे व आठवे माह में व कन्या का पांचवे व सातवे माह में किया जाता है इस संस्कार से बच्चे के शरीर को पुष्ट करने व उसकी रुचि का परिचय प्राप्त किया जाता है इसका मतलब स्पष्ट रूप से यह है की उसे पेय पदार्थ दुध आदि के इलावा खादय पदार्थ देना प्रारंम्भ किया जाता है यह संस्कार जन्म लग्न जन्म गृह व नक्षत्रो को देखते हुये शुभ महुर्त में करने के लिए हमारे विधवानो ने खास संस्कार को करने के लिए पाठ पुजा कुल देव की पुजा या यग - हवन आदि से विधिवत करना चाहिये उस समय बच्चे को मीठा - नमकिन - कड़वा , आग्ल युक्त रस नर्म भोजन आदि से प्रारम्भ करना चाहिये . असल इस आयु में बच्चे के दांत निकलने लगते है और उसकी पाचन क्रिया भी सुदृढ़ हो जाती है दांत निकलते समय बच्चे की शरीरिक मेहनत बहुत ज्यादा हो जाती है की उसके शरीर को कमजोर करना शुरू कर देती है ऐसे में शरीरिक कमजोरी केवल माँ का दुध - पूरी नही कर पाता तो ऐसे में उसे भोजन दिया जाता हैजो शरीरिक कमजोरी को दुर कर बच्चे का स्वास्थ्य बनाता है अन्नप्राशन संस्कार का सही मतलब बच्चे को पूर्ण स्वास्थ्य बनाने की पहली विधि माना गया है ऐसे में जो भोजन बच्चे को दिया जाता है वही भोजन की वजह से बच्चे का स्वभाव व आव - भाव आने शुरू हो जाते है हिन्दु धर्म में इस संस्कार में सात्विक भोजन ही बच्चे को परोसा जाता है.

8 मुंडन संस्कार :

यह संस्कार चूड़ कर्म या मुंडन संस्कार के नाम से जाना जाता है यह संस्कार शिशु के जन्म के पहले वर्ष से लेकर सातवे वर्ष तक भी किया जा सकता है इस संस्कार से बच्चे का रूप निखर जाता है क्योकि शिशु के सिर के बाल प्रथम बार उस्तरे से उतारे जाते है मुण्डन संस्कार भी समय व महुर्त देख कर अपने किसी धार्मिक स्थान पर किया जाता है ताकि उस स्थान पर जब शिशु के प्रथम बार बाल उतारे जाने से उसके मन के संस्कारो का भी शमन हो सके. वैसे भी यह जरूरी है आपने अकसर देखा होगा की जन्म की समय बच्चे की सिर में मैल रूपी पपड़ी जमी होती है जो धीरे- धीरे अपना स्थान छोड़ती है तो वह बच्चे की बालो के साथ ही रहती है.

9 कर्ण वेद संस्कार :

कर्ण वेध संस्कार या कर्ण छेदन तीसरे , पांचवे आदि विषम वर्षो में किया जाता है यह हमारे शास्त्रो का मानना है कर्ण छेदन संस्कार के लिए जन्म कुण्डली में गृह व दिन नक्षत्र आदि का महुर्त देख कर किसी ब्राह्मण से पाठ पुजा करवा कर किया जाता है उस समय पहले बालक को कुछ मीठा दिया जाता है खाने के लिए फिर ब्राह्मण वैश्य वर्ण में चांदी की सुई से क्षत्रिय में सोने की सुई से व शुद्र में लोहे की सुई से किया जाता है शुभ महुर्त में बालक के दोनों कानो में छिद्र करके कुंडल पहनाये जाते है लड़के के दांये व लड़कियों के बांये कान में पहले छेद किया जाता है पर आज के युग में यह संस्कार लोग अपनी मर्जी से बिना समय देख कर रहे है वो भी लड़कियों के लिए लड़के के लिए यह करना जरूरी नही समझते बल्कि शास्त्र दोनों को ही करने के लिए कहता है वर्त्तमान में कुछ बदलाव जरुर हुए है लड़का हो या लड़की कर्ण छेदन करवा रही है पर बिना महुर्त बिना विधि के सिर्फ फैशन के लिए मान्यता है की सूर्य की किरणे कानो में छेद से प्रवेश पा कर शिशु तो तेज सपन्न बनाती है मस्तिक तेज होता है बच्चे को हिस्टीरियो व तनाव से मुक्ति मिलती है लड़कियों का मासिक धर्म सही रहता है.

10 विद्यारम्भ या अक्षरभ संस्कार:

यह संस्कार बच्चे के 5 वर्ष की आयु में किया जाता है क्योकि उस समय तक बच्चे का तन स्वास्थ्य व बुद्धि त्रीव हो चुकी होती है मानसिक विकास बड़ी जल्दी से बढ़ता है हर बात जो वो सुनता है देखता है अपने आप वो उस बारे में पुर्ण बताने भी लगता है ऐसी में यह संस्कार कर उसे विद्यारम्भ करवाई जाती है और विधि के पहले अक्षरो का ज्ञान दिया जाता है इसके लिए विधिवत महुर्त निकाल कर पुजा पाठ कर यह कार्य सम्पन्न किया जाता है क्योकि विद्या माता की भांति रक्षा व पिता की तरह हितकारी कार्यो में नियोजित करती है बच्चे के जीवन में बाहर की दुनिया के बारे में उसे बताती है अच्छा बुरा जान कर अपने फैसले करने की बुद्धि प्रदान करती है अच्छा बुरा जानने की समझ देती है विद्या की देवी सरस्वती है व उसको नमन कर इस कार्य को शुरू करना बच्चे को सिखाया जाता है व माता - पिता के इलावा गुरु की उसके जीवन में क्या अहमियत है इसका ज्ञान दिया जाता है.

11 यज्ञोपवीत संस्कार :

ज्योतिष शास्त्रोक्त समय में आठवे से सोलह वर्ष के भीतर यह संस्कार किया जाता है बालक की आयु वृद्धि हेतु गायत्री तथा वेद पाठ का अधिकारी बनने के लिए इस संस्कार की अतयंत आवश्यकता होती है यह माना जाता है की प्रथम जन्म माता के उदर से होता है व द्वितीय जन्म यज्ञोपवीत धारण से होता है इस समय बालक को पूर्ण विधि -विधान महुर्त देख कर पूर्ण पाठ पुजा कर्म करके यज्ञोपवीत धारण करवाया जाता है मान्यता है कि माता के गर्भ से जो जन्म होता है उस पर जन्म जन्मांतरों के संस्कार हावी रहते है यज्ञोपवीत धारण से इन संस्कारो का शमन करके अच्छे संस्कार स्थायी बनाए जाते है इस लिए ही इस को द्वितीय जन्म कहते है इस लिये ही ब्राह्मण , वैश्य ,क्षत्रिय तीनो द्विजाति कहे है यज्ञोपवीत संस्कार के बाद ही बालक को धर्म के कार्य करने का अधिकार मिलता है आपके अक्सर देखा होगा कि कई लोगो के गले में सफेद रंग का केई लडीयो वाला धागा पहना होता है उसे ही यज्ञोपवीत कहते है यज्ञोपवीत की तीन लड़े होती है जो तीन ऋनो का बौद्ध करती है ब्राह्मण से ऋषि ऋण , यज्ञ से देव व गृहस्य से पितु ऋण चुकाया जाता है यज्ञोपवीत की नो सदगुणो के प्रतीक माना जाता है इन नो सूत्रो में नो देवता वास करते है समय - समय पर शुभ महुर्त देख कर यज्ञोपवीत बदला भी जाता है व पुराने यज्ञोपवीत को जल प्रवाह कर देते है शोच आदि कार्यो में यज्ञोपवीत का विशेष ध्यान रखा जाता है अन्यथा यह दूशित हो जाता है यज्ञोपवीत धारण करने वाले के अन्दर इन गुणो का होना भी जरूरी है जैसे ह्रदय में प्रेम ,व्यवहार में सरलता ,वाणी में मधुरता ,पवित्र भावनाए , कला व सौंदर्य का बोध ,उदारता ,सेवा भावना ,शिष्टाचार और अनुशासन यही सुख जीवन का मूल आधार है यज्ञोपवीत पहने हुए जातक में ये गुण अपने आप भी आ जाते है

12 वेदारंभ संस्कार :

हिंदू धर्म में ये सभी संस्कार करने के बाद जब बालक यज्ञोपवीत संस्कार कर लेता है तो उसे वैदो का ज्ञान प्राप्त करने का हक मिल जाता है तो उस के बाद यह संस्कार कर वेदांरभ विधि से वैदो का समरण करवाया जाता है इसमे भी खास कर दिन वार समय व महुर्त के साथ - साथ गुरु कि शरण में वेदारम्भ होना शुभ माना गया है वेद आरम्भ करने से पहले जातक को गुरु व शिष्य के मध्य वैदिक रितिरिवाज भी सिखाये जाते है उसके बाद गुरु अपने शिष्य को वेद आरम्भ करवाता है जो जीवन भर उसका साथ देते है

13 केशांत संस्कार :

पुराने समय में जब बालक वेद पढने जाता था तो उसके अपने नाखुन व बाल कटवाने और दाढ़ी बनवाने कि अनुमति नही होती थी पर गुरु के द्वारा वेद पाठ पूर्ण होने यानी वैदो की शिक्षा पाने के बाद शुभ महुर्त में अपने गुरु या आचार्य से अनुमति लेकर यह कार्य करता था, जिसमे वह नाखुन बाल व् दाढी बनवाकर स्नान कर यज्ञ व पाठ पुजा करके देवताओ को प्रसन्न कर सके.

14 समावर्त्तन संस्कार :

यह संस्कार एक प्रकार से देखा जाये तो बालक की पूर्ण विधि करने के बाद उसे उच्चे पदो पर ले जाने के लिये किया जाता है यह ब्रहाचर्य व्रत के समापन व विधार्थी जीवन के अंत का सुचक माना गया है आम तोर पर यह संस्कार 25 वर्ष की आयु में होता है उस समय युवा पुरुष उत्तम वस्त्रो को धारण कर सब विद्या से प्रकाशित ब्रह्यचारी के रूप से निकल कर जब गृहाश्रम में आता है तब वह प्रसिद्ध होकर मंगलकारी शोभायुक्त होता है. उस समय गुरु या आचार्य दी गयी सिद्धि के लिए पाठ पुजा व यज्ञ कर्म करवा कर गृहस्थ की मूल भूत जरुरतो को पूरा करने की लिए आशिर्वाद देते है व देवी देवताओ से उसके सुखी जीवन की कामना करते हुए उसे विदा करते है.उस समय में शिष्य अपने गुरु या आचार्य की मान मर्यादा को निभाते हुए अपनी समर्था की अनुसार दक्षिणा दे कर आशीर्वाद प्राप्त करता है .

15 विवाह संस्कार :

सोलह संस्कारो में सबसे महत्वपूर्ण संस्कार विवाह है पुरुषत्व और स्त्रीत्व का सयोग तथा सृष्टि का मूल कारण ही विवाह संस्कार है विवाह संस्कार भिन्न - भिन्न रीतियो के द्वारा सम्पन्न होता है हर जाती में विवाह संस्कार करने की विधि अलग - अलग है पर हिन्दुओ में होने वाले आठ प्रकार के विवाह है ब्रहमा,दैव ,आर्ष ,प्रजापत्य ,आसुर ,गांधर्व ,राक्षस ,पैशाच ये आठ प्रकार के विवाह मनुस्मृति में बताये गये है ब्राह्म अर्थात कन्या को ससुज्जित कर वर को बुलाकर कन्या दान करना, दैव अर्थात ऋत्विक को वस्त्र आदि से ससुज्जित कर कन्या देना, तथा यज्ञादिक कार्य के लिए वर से गौ आदि लेकर कन्यादान करना,आर्ष वर कन्या को गृहस्थ धर्म का पालन करने की आज्ञा देना, प्रजापत्य कन्या के कुटुम्बियों को धन देकर जो विवाह किया जाता है आसुर विवाह, वर कन्या के परसपर अनुराग से जो विवाह किया जाता है गन्धर्व विवाह, कन्या को बलपूर्वक हरण किया जाता है राक्षस विवाह ,कन्या के साथ बलपूर्वक जो सम्बन्ध किया जाता है उसे पैशाच विवाह कहते है उपरोक्त आठ प्रकार के विवाहो में प्रथम चार विवाह करने की शास्त्र आज्ञा देता है तथा चार शेष की निन्दा की गई है प्रथम कहे चार विवाहो में भी हिन्दु शास्त्रो में ब्राह्मा विवाह को पवित्र माना गया है कन्यादान की दिन माता पिता को उपवास करना चाहिय क्योकि यदि असमर्थ हो जल ,मूल ,फल , दूध आदि का उपयोग कर सकते है

16 अंतयेष्टि संस्कार:

यह संस्कार सबसे आखिर में होता है जन्म से लेकर मुत्यु तक जो 16 संस्कारो के बारे में आप ने जाना है उन्ही में से यह एक संस्कार है जो की जातक की मुत्यु के समय उनके परिवार के लोग करते है मनुष्य के प्राण निकल जाने पर मृत शरीर को अग्नि को समर्पित करके अत्येष्टि संस्कार करके का विधान है इस संस्कार के पीछे मुख्य उदेश्य है सभी सज्जन संबंधी मित्र आदि अंतिम विदाई देने हेतु अत्येष्टि में शामिल हो व जीवन का उदेश्य समझे क्योकि उन्होंने भी तो भविष्य में इसी संस्कार से गुजरना जो है मानव शरीर पांच तत्वो से मिलकर बना है व् इन्ही पांच तत्वो में वलीन भी हो जाना है हिन्दू धर्म में मान्यता है की मृत प्राणी की आत्मा उसके आस पास रहती है उसके इस मोह को समाप्त करने के लिए मृत शरीर को अग्नि में समर्पित क्र उसका मोह भंग कर दिया जाता है अत्येष्टि संस्कार में अग्नि देने के बाद कपाल क्रिया की जाती है जो हिन्दु धर्म में बहुत जरूरी है इस में खोपड़ी की हड्डी को चोट पहुचा कर मृत मानव की खोपड़ी खण्डित कर दी जाती है जो पूर्ण रूप से जल सके क्योकी मानव का यह अंग बहुत कठोर होता है . मृत शरीर के बाद अलग अलग तरह की क्रिया करके मानव की जली हुई हड्डीया जिन्हे फुल भी कहते है गति आदि करवा कर जल प्रवाह कर दिया जाता है और उसकी आत्मा की शान्ति के लिए पाठ पुजा भी करवाई जाती है यह कार्य घर का बड़ा बेटा ही करता है उसके यह करने से ही उस मानव की आत्मा को तृप्ति मिलती है.



पुदीने का उपयोग

पुदीने का उपयोग अधिकांशतः चटनी या मसाले के रूप में किया जाता है। पुदीना एक सुगंधित एवं 

उपयोगी औषधि है। यह अपच को मिटाता है।

आयुर्वेद के मतानुसार पुदीना, स्वादिष्ट, रुचिकर, पचने में हलका, तीक्ष्ण, तीखा, कड़वा, पाचनकर्ता,

उलटी मिटाने वाला, हृदय को उत्तेजित करने वाला, शक्ति बढ़ानेवाला, वायुनाशक, विकृत कफ को 

बाहर लाने वाला, गर्भाशय-संकोचक, चित्त को प्रसन्न करने वाला, जख्मों को भरने वाला, कृमि

ज्वर, विष, अरुचि, मंदाग्नि, अफरा, दस्त, खाँसी, श्वास, निम्न रक्तचाप, मूत्राल्पता, त्वचा के दोष

हैजा, अजीर्ण, सर्दी-जुकाम आदि को मिटाने वाला है।


पुदीने का रस पीने से खाँसी, उलटी, अतिसार, हैजे में लाभ होता है, वायु व कृमि का नाश होता है।


पुदीने में रोगप्रतिकारक शक्ति उत्पन्न करने की अदभुत शक्ति है एवं पाचक रसों को उत्पन्न करने 

की भी क्षमता है। अजवायन के सभी गुण पुदीने में पाये जाते हैं।

पुदीने के बीज से निकलने वाला तेल स्थानिक एनेस्थटिक, पीड़ानाशक एवं जंतुनाशक होता है। यह 

दंतपीड़ा एवं दंतकृमिनाशक होता है। इसके तेल की सुगंध से मच्छर भाग जाते हैं।

औषधि-प्रयोग-------


मंदाग्नि--- पुदीने में विटामिन ए अधिक मात्रा में पाया जाता है। इसमें जठराग्नि को प्रदीप्त करने 

वाले तत्त्व भी अधिक मात्रा में हैं। इसके सेवन से भूख खुलकर लगती है। पुदीना, तुलसी, काली 

मिर्च, अदरक आदि का काढ़ा पीने से वायु दूर होता है व भूख खुलकर लगती है।

त्वचाविकार--- दाद-खाज पर पुदीने का रस लगाने से लाभ होता है। हरे पुदीने की चटनी बनाकर 

सोते समय चेहरे पर उसका लेप करने से चेहरे के मुँहासे, फुंसियाँ समाप्त हो जाती हैं।

हिचकी--- हिचकी बंद न हो रही हो तो पुदीने के पत्ते या नींबू चूसें।

पैर-दर्दः सूखा पुदीना व मिश्री समान मात्रा में मिलायें एवं दो चम्मच फंकी लेकर पानी पियें। इससे 

पैर-दर्द ठीक होता है।

मलेरिया--- पुदीने एवं तुलसी के पत्तों का काढ़ा बनाकर सुबह-शाम लेने से अथवा पुदीना एवं 

अदरक का 1-1 चम्मच रस सुबह-शाम लेने से लाभ होता है।

वायु एवं कृमि--- पुदीने के 2 चम्मच रस में एक चुटकी काला नमक डालकर पीने से गैस, वायु एवं 

पेट के कृमि नष्ट होते हैं।

प्रातः काल एक गिलास पानी में 20-25 ग्राम पुदीने का रस व 20-25 ग्राम शहद मिलाकर पीने से गैस की बीमारी में विशेष लाभ होता है।

पुरानी सर्दी-जुकाम व न्यूमोनिया--- पुदीने के रस की 2-3 बूँदें नाक में डालने एवं पुदीने तथा 

अदरक के 1-1 चम्मच रस में शहद मिलाकर दिन में 2 बार पीने से लाभ होता है।

अनार्तव-अल्पार्तव--- मासिक न आने पर या कम आने पर अथवा वायु एवं कफदोष के कारण बंद 

हो जाने पर पुदीने के काढ़े में गुड़ एवं चुटकी भर हींग डालकर पीने से लाभ होता है। इससे कमर 

की पीड़ा में भी आराम होता है।

आँत का दर्द--- अपच, अजीर्ण, अरुचि, मंदाग्नि, वायु आदि रोगों में पुदीने के रस में शहद डालकर लें 
अथवा पुदीने का अर्क लें।

दाद--- पुदीने के रस में नींबू मिलाकर लगाने से दाद मिट जाती है।

उल्टी-दस्त, हैजा--- पुदीने के रस में नींबू का रस, प्याज अथवा अदरक का रस एवं शहद मिलाकर 

पिलाने अथवा अर्क देने से ठीक होता है।

बिच्छू का दंश--- बिच्छू के काटने पर इसका रस पीने से व पत्तों का लेप करने से बिच्छू के 

काटने से होने वाला कष्ट दूर होता है। पुदीने का रस दंशवाले स्थान पर लगायें एवं उसके रस में 

मिश्री मिलाकर पिलायें। यह प्रयोग तमाम जहरीले जंतुओं के दंश के उपचार में काम आ सकता है।

हिस्टीरिया--- रोज पुदीने का रस निकालकर उसे थोड़ा गर्म करके सुबह शाम नियमित रूप से देने 

पर लाभ होता है।


मुख की दुर्गन्ध--- पुदीने की रस में पानी मिलाकर अथवा पुदीने के काढ़े का घूँट मुँह में भरकर 

रखें, फिर उगल दें। इससे मुख की दुर्गन्ध का नाश होता है।

विशेष--- पुदीने का ताजा रस लेने की मात्रा 5 से 10 मि.ग्रा. पत्तों का चूर्ण लेने की मात्रा 3 से

ग्राम, काढ़ा लेने की मात्रा 20 से 50 ग्राम, अर्क लेने की मात्रा 10 से 20 मि.ग्रा. एवं बीज का तेल 

लेने की मात्रा आधी बूँद से 3 बूँद तक है।
पुदीने के उपयोग -----
____________________________________________________

पुदीने का उपयोग अधिकांशतः चटनी या मसाले के रूप में किया जाता है। पुदीना एक सुगंधित एवं उपयोगी औषधि है। यह अपच को मिटाता है।

आयुर्वेद के मतानुसार पुदीना, स्वादिष्ट, रुचिकर, पचने में हलका, तीक्ष्ण, तीखा, कड़वा, पाचनकर्ता, उलटी मिटाने वाला, हृदय को उत्तेजित करने वाला, शक्ति बढ़ानेवाला, वायुनाशक, विकृत कफ को बाहर लाने वाला, गर्भाशय-संकोचक, चित्त को प्रसन्न करने वाला, जख्मों को भरने वाला, कृमि, ज्वर, विष, अरुचि, मंदाग्नि, अफरा, दस्त, खाँसी, श्वास, निम्न रक्तचाप, मूत्राल्पता, त्वचा के दोष, हैजा, अजीर्ण, सर्दी-जुकाम आदि को मिटाने वाला है।
पुदीने का रस पीने से खाँसी, उलटी, अतिसार, हैजे में लाभ होता है, वायु व कृमि का नाश होता है।
पुदीने में रोगप्रतिकारक शक्ति उत्पन्न करने की अदभुत शक्ति है एवं पाचक रसों को उत्पन्न करने की भी क्षमता है। अजवायन के सभी गुण पुदीने में पाये जाते हैं।
पुदीने के बीज से निकलने वाला तेल स्थानिक एनेस्थटिक, पीड़ानाशक एवं जंतुनाशक होता है। यह दंतपीड़ा एवं दंतकृमिनाशक होता है। इसके तेल की सुगंध से मच्छर भाग जाते हैं।

औषधि-प्रयोग-------

मंदाग्नि--- पुदीने में विटामिन ए अधिक मात्रा में पाया जाता है। इसमें जठराग्नि को प्रदीप्त करने वाले तत्त्व भी अधिक मात्रा में हैं। इसके सेवन से भूख खुलकर लगती है। पुदीना, तुलसी, काली मिर्च, अदरक आदि का काढ़ा पीने से वायु दूर होता है व भूख खुलकर लगती है।

त्वचाविकार--- दाद-खाज पर पुदीने का रस लगाने से लाभ होता है। हरे पुदीने की चटनी बनाकर सोते समय चेहरे पर उसका लेप करने से चेहरे के मुँहासे, फुंसियाँ समाप्त हो जाती हैं।

हिचकी--- हिचकी बंद न हो रही हो तो पुदीने के पत्ते या नींबू चूसें।
पैर-दर्दः सूखा पुदीना व मिश्री समान मात्रा में मिलायें एवं दो चम्मच फंकी लेकर पानी पियें। इससे पैर-दर्द ठीक होता है।

मलेरिया--- पुदीने एवं तुलसी के पत्तों का काढ़ा बनाकर सुबह-शाम लेने से अथवा पुदीना एवं अदरक का 1-1 चम्मच रस सुबह-शाम लेने से लाभ होता है।

वायु एवं कृमि--- पुदीने के 2 चम्मच रस में एक चुटकी काला नमक डालकर पीने से गैस, वायु एवं पेट के कृमि नष्ट होते हैं।

प्रातः काल एक गिलास पानी में 20-25 ग्राम पुदीने का रस व 20-25 ग्राम शहद मिलाकर पीने से गैस की बीमारी में विशेष लाभ होता है।

पुरानी सर्दी-जुकाम व न्यूमोनिया--- पुदीने के रस की 2-3 बूँदें नाक में डालने एवं पुदीने तथा अदरक के 1-1 चम्मच रस में शहद मिलाकर दिन में 2 बार पीने से लाभ होता है।

अनार्तव-अल्पार्तव--- मासिक न आने पर या कम आने पर अथवा वायु एवं कफदोष के कारण बंद हो जाने पर पुदीने के काढ़े में गुड़ एवं चुटकी भर हींग डालकर पीने से लाभ होता है। इससे कमर की पीड़ा में भी आराम होता है।

आँत का दर्द--- अपच, अजीर्ण, अरुचि, मंदाग्नि, वायु आदि रोगों में पुदीने के रस में शहद डालकर लें अथवा पुदीने का अर्क लें।

दाद--- पुदीने के रस में नींबू मिलाकर लगाने से दाद मिट जाती है।

उल्टी-दस्त, हैजा--- पुदीने के रस में नींबू का रस, प्याज अथवा अदरक का रस एवं शहद मिलाकर पिलाने अथवा अर्क देने से ठीक होता है।

बिच्छू का दंश--- बिच्छू के काटने पर इसका रस पीने से व पत्तों का लेप करने से बिच्छू के काटने से होने वाला कष्ट दूर होता है। पुदीने का रस दंशवाले स्थान पर लगायें एवं उसके रस में मिश्री मिलाकर पिलायें। यह प्रयोग तमाम जहरीले जंतुओं के दंश के उपचार में काम आ सकता है।

हिस्टीरिया--- रोज पुदीने का रस निकालकर उसे थोड़ा गर्म करके सुबह शाम नियमित रूप से देने पर लाभ होता है।
मुख की दुर्गन्ध--- पुदीने की रस में पानी मिलाकर अथवा पुदीने के काढ़े का घूँट मुँह में भरकर रखें, फिर उगल दें। इससे मुख की दुर्गन्ध का नाश होता है।

विशेष--- पुदीने का ताजा रस लेने की मात्रा 5 से 10 मि.ग्रा. पत्तों का चूर्ण लेने की मात्रा 3 से 6 ग्राम, काढ़ा लेने की मात्रा 20 से 50 ग्राम, अर्क लेने की मात्रा 10 से 20 मि.ग्रा. एवं बीज का तेल लेने की मात्रा आधी बूँद से 3 बूँद तक है।