Sunday 1 December 2013

हमारा कर्त्तव्य "हे प्रभु" हे परमात्मन

जय शंकर जी कि जी {{{{{[ हमारा कर्त्तव्य }}}}==== भाग == पहला ==== हम लोगों के 

कर्त्तव्य कि और ध्यान देनेपर अधिकाँश में येही अनुमान होता है कि इस समय हम लोग कर्त्तव्य

 के पालनमें प्रायः तटपर नहीं हैं.ध्यानपूर्वक विचार करने से पद पदपर त्रुटियां दिखाई देती हैं.आज

कल सभी लोग अपनी उनती चाहते हैं और यथासाध्य चेष्टा करना भी उत्तम समझते हैं, अतएव

 सबसे पहले विचारणीय विषय यह है कि मनुष्य का करतव क्या है,उसके पालन के लिए मनुष्य

 को किस प्रकार चेष्टा करनी चाहिए और इच्छा करने पर भी मनुष्य कौन सी बाधाओं के कारण

 यथासाध्य चेष्टा नहीं कर सकता ? मनुष्य का प्रधान कर्त्तव्य है अपने आतम कि उनती करना 

,भगवान कहते हैं कि मनुष्य को चाहिए कि वह अपने द्वारा अपना उद्धार करे. अपनी आत्मा को 

अधोगतिमें न पहुंचावें अब यह समझना हैं हमें कि आखिर आत्मा कि उनती क्या है उसका अधः 

पतन किस्में है ? अपने अन्दर (अध्यात्म ) ज्ञान ,(परम) सुख,(अखंड) शांति और न्यायकी

 वर्त्तमान में और परिणाम में उत्तरोतर वृद्धि करना आत्मा कि उनती है.और इसके विपरीत दुःख 

के हेतु अज्ञान ,प्रमाद,अशांति और अन्यायकी और झुकना तथा उनकी वृद्धि में हेतु बनना ही 

आत्मा का अधःपतन है.मनुष्य को निरंतर आत्म निरिक्षण करते हुए आत्मा कि उनती के पर्यतन 

में लग्न और अधः पतन के पर्यटन से हटना चाहिए,जो मनुष्य अपनी उनती कर चुके हैं या उनत 

के मार्गपर स्थित है उनका संग आत्मा कि उनती में और जो गिरे हुए हैं या उत्तरोत्तर गिर रहे हैं

उनका संग आत्मा कि अवनतिमें सहायक होता है ,इसलिए सदा सर्वदा उत्तम पुरुषों का संग

करना ही उचित है.उत्तम पुरुष उनको समझना चाहिए जिनमें स्वार्थ ,अहंकार,दम्भ, और क्रोध नहीं

 है

,जो मान बड़ाई या पूजा नहीं चाहते,जिनके आचरण परम पवित्र हैं,जिनको देखने और जिनकी

 वाणी सुनने से परमात्मा में प्रेम और श्रद्धा कि वृद्धि होती है,हृदय में शांति का प्रादुर्भाव होता है

 और परमेश्वर,परलोक तथा सैट शास्त्र में श्रद्धा उत्पन होकर कल्याण कि और झुकाव होता है,ऐसे

 परलोक गत और वर्त्तमान सत्पुरुषों कि उत्तम आचरणों को आदर्श मानकर उनका अनुकरण

 करना एवं उनके आज्ञानुसार चलना तथा अपनी बुद्धि में जो बात कल्याण कारक,शांति प्रद औ

 श्रेस्ठ प्रतीत हो उसी को काम में लाना चाहिए ! संसार के प्रायः सभी सम्प्रदाये और मत-मतान्त 

किसी न किसी रूप में उसी को मानते हैं और उसी कि और अपने अनुयायी को ले जाना चाहते

 हैं,अतएव उन सभी सम्प्रदाय और मत-मतांतरोंके मनुष्य जिन-जिन ग्रंथों को अपना शास्त्र और

 धर्म ग्रन्थ मानते हैं उनके लिए वही शास्त्र और धर्म ग्रन्थ हैं.जो व्यक्ति जिस धर्म को मानता है

 उसे उसी धर्म शास्त्र के अनुसार अपने सदाचारी श्रेस्ठ पूर्वजों द्वारा आचरित और उपदिष्ट उत्तम

 साधनोंमें से जो अपनी बुद्धि में आत्मा का कल्याण करने वाले प्रिये प्रतीत हों,उनको गरहन करना

ही उसका शास्त्रानुसार चलना है.शास्त्रों कि उन्ही बातों का अनुकरण करना चाहिए जो विचार करने

 पर अपनी बुद्धि में भी कल्याण कारक प्रतीत हों,जिनको हम उत्तम पुरुष मानते हैं उनके भी 

उन्ही आचरणों का हमें अनुकरण करना उचित है,जो हमारी बुद्धि से उत्तम से उत्तम प्रतीत 

हों.उनके जो आचरण हमारी दृष्टि में अनुचित और शंकास्पद प्रतीत हों उन्हों गरहन नहीं करना 

चाहिए.जिनका कल्याण हो चूका है या कल्याण के मार्ग पर बहुत कुछ अगर्सर हो चुके हैं ऐसे 

पुरषों का संग न मिलने पर या किसी में भी ऐसा होने का विश्वास न जमनेपर ऐसे सत्पुरुषों कि

 प्राप्ति के लिए परमेश्वर इस भावसे प्रार्थना करनी चाहिए कि "हे प्रभु" हे परमात्मन ! हे नाथ 

आप में मेरा अनन्य प्रेम हो इसके लिए आप कृपा करके मुझे उन महान पुरुषों का संग दीजिये जो

सच्चे मन से और परम श्रद्धा से आपके प्रेम में मत्त रहते हैं ! बार बार प्रभु से विनय करने पर

 उसकी कृपा से साधकको उसकी इच्छा के अनुकूल सत्पुरुषों कि प्राप्ति अवश्य ही हो जाती है.

 मुझमे मैं न रहूँ ऐसी कृपा कीजिये दीन दयाल पलकों को जब जब भी खोलूं मैं आपके करके

 दर्शन मैं हो जाऊं तब तब निहाल ............ प्रभु चरणों कि सेवा का दीवाना 

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