Thursday, 28 November 2013

विवाह के ये सात वचन

विवाह के ये सात वचन -----

हिन्दू धर्म में विवाह के समय वर-वधू द्वारा सात वचन लिए जाते हैं. इसके बाद ही विवाह

 संस्कार पूर्ण होता है.विवाह के बाद कन्या वर से पहला वचन लेती है कि-

पहला वचन इस प्रकार है - 

तीर्थव्रतोद्यापनयज्ञ दानं मया सह त्वं यदि कान्तकुर्या:।

वामांगमायामि तदा त्वदीयं जगाद वाक्यं प्रथमं कुमारी।।

अर्थ - इस श्लोक के अनुसार कन्या कहती है कि स्वामि तीर्थ, व्रत, उद्यापन, यज्ञ, दान आदि सभी

 शुभ कर्म तुम मेरे साथ ही करोगे तभी मैं तुम्हारे वाम अंग में आ सकती हैं अर्थात् तुम्हारी पत्नी 

बन सकती हूं। वाम अंग पत्नी का स्थान होता है.

दूसरा वचन इस प्रकार है-

हव्यप्रदानैरमरान् पितृश्चं कव्यं प्रदानैर्यदि पूजयेथा:।

वामांगमायामि तदा त्वदीयं जगाद कन्या वचनं द्वितीयकम्.

अर्थ - इस श्लोक के अनुसार कन्या वर से कहती है कि यदि तुम हव्य देकर देवताओं को और

 कव्य देकर पितरों की पूजा करोगे तब ही मैं तुम्हारे वाम अंग में आ सकती हूं यानी पत्नी बन 

सकती हूं.

तीसरा वचन इस प्रकार है-

कुटुम्बरक्षाभरंणं यदि त्वं कुर्या: पशूनां परिपालनं च।

वामांगमायामि तदा त्वदीयं जगाद कन्या वचनं तृतीयम्।।

अर्थ - इस श्लोक के अनुसार कन्या वर से कहती है कि यदि तुम मेरी तथा परिवार की रक्षा करो

 तथा घर के पालतू पशुओं का पालन करो तो मैं तुम्हारे वाम अंग में आ सकती हूं यानी पत्नी 

बन सकती हूं।

चौथा वचन इस प्रकार है -

आयं व्ययं धान्यधनादिकानां पृष्टवा निवेशं प्रगृहं निदध्या:।।

वामांगमायामि तदा त्वदीयं जगाद कन्या वचनं चतुर्थकम्।।

अर्थ - चौथे वचन में कन्या वर से कहती है कि यदि तुम धन-धान्य आदि का आय-व्यय मेरी

 सहमति से करो तो मैं तुम्हारे वाग अंग में आ सकती हैं अर्थात् पत्नी बन सकती हूं.

पांचवां वचन इस प्रकार है -

देवालयारामतडागकूपं वापी विदध्या:यदि पूजयेथा:।

वामांगमायामि तदा त्वदीयं जगाद कन्या वचनं पंचमम्।।

अर्थ - पांचवे वचन में कन्या वर से कहती है कि यदि तुम यथा शक्ति देवालय, बाग, कूआं

, तालाब, बावड़ी बनवाकर पूजा करोगे तो मैं तुम्हारे वाग अंग में आ सकती हूं अर्थात् पत्नी बन

 सकती हूं.


छठा वचन इस प्रकार है -

देशान्तरे वा स्वपुरान्तरे वा यदा विदध्या:क्रयविक्रये त्वम्।

वामांगमायामि तदा त्वदीयं जगाद कन्या वचनं षष्ठम्।।

अर्थ - इस श्लोक के अनुसार कन्या वर से कहती है कि यदि तुम अपने नगर में या विदेश में या

 कहीं भी जाकर व्यापार या नौकरी करोगे और घर-परिवार का पालन-पोषण करोगे तो मैं तुम्हारे

 वाग अंग में आ सकती हूं यानी पत्नी बन सकती हूं.

सातवां वचन इस प्रकार है -

न सेवनीया परिकी यजाया त्वया भवेभाविनि कामनीश्च।

वामांगमायामि तदा त्वदीयं जगाद कन्या वचनं सप्तम्।।

अर्थ - इस श्लोक के अनुसार सातवां और अंतिम वचन यह है कि कन्या वर से कहती है यदि तुम

 जीवन में कभी पराई स्त्री को स्पर्श नहीं करोगे तो मैं तुम्हारे वाम अंग में आ सकती हूं यानी 

पत्नी बन सकती हूं.

शास्त्रों के अनुसार पत्नी का स्थान पति के वाम अंग की ओर यानी बाएं हाथ की ओर रहता है

. विवाह से पूर्व कन्या को पति के सीधे हाथ यानी दाएं हाथ की ओर बिठाया जाता है और विवाह

 के बाद जब कन्या वर की पत्नी बन जाती है जब वह बाएं हाथ की ओर बिठाया जाता है.

आज हम अपने धर्म पर अपने भगवान पर विश्वास नहीं करते हैं

आज हम अपने धर्म पर अपने भगवान पर विश्वास नहीं करते हैं, हमें शंका होती है कि हमारी 

इच्छा पूरी होगी या नहीं और उसी का परिणाम है कि हमें वो नहीं मिलता जो हम चाहते हैं।

 तुम्हें परमात्मा पर पूर्ण विश्वास होना चाहिए और जब तुम्हारा विश्वास पूर्ण होगा तो तुम्हें 

निराश नहीं होना पड़ेगा। उसी के उदाहरण स्वरुप एक सुन्दर प्रसंग है। 

"एक आदमी था जो पढ़ा लिखा था और खुद को बहुत मॉडर्न मानता था। अपने नौकरो को भी 


डाँटता था तो अंग्रेजी में, अपने कुत्तों से भी बात करता तो अंग्रेजी में। एक बार कि बात उसके

 बेटे कि तबियत ख़राब हो गयी तो उसने तुरंत डॉक्टर को दिखाया तो कुछ फायदा नहीं हुआ। 

और भी कई डॉक्टरों को दिखाया तो कोई फायदा नहीं हुआ, फिर उसने हकिमों और वैधों को भी

 दिखाया तो भी कोई फायदा नहीं हुआ। अब तो वो आदमी बहुत परेशान हो गया। 

एक दिन उसके घर एक बाबा आये और बोले कि मैं उसे ठीक कर सकता हूँ। उसने कहा कि बड़े

 - बड़े डॉक्टर नहीं कर सके तुम क्या करोगे ? पर बेटे के लिए ये भी कर लूंगा। बताओ क्या 

करना है ? बाबा जी ने बोला कि जाओ और हनुमान जी के मंदिर में उनको सिंदूर चढ़ाओ और

 प्रसाद चढ़ाओ और उसी सिंदूर को अपने बेटे के सर पे तिलक लगाओ और प्रसाद खिलाओ वो 

ठीक हो जायेगा। उस आदमी ने कहा कि मैं भगवान को नहीं मानता मेरे लिए तो पत्थर है पर 

बेटे के लिए करूँगा। और उसने जा कर जो बाबा जी ने बताया वो किया पर बेटे को कोई फायदा

 न हुआ। वो झट बाबा जी के पास पहुंचा और बोला कि झूठ बोलते हो ? मेरे बेटे को कुछ आराम

 नहीं हुआ। बाबा जी बोले कि तुमने भगवान को पूजा कहा तुमने तो पत्थर को पूजा, और पत्थर 

किसी को सुख नहीं देता पहले उस पत्थर को भगवान मानो तब तुम्हें फल मिलेगा। फिर बाबा जी 

ने खुद उस मंदिर जा कर प्रसाद, सिंदूर चढ़ाया और उस बच्चे के मस्तक पर तिलक किया और

 प्रसाद खिलाया और वो बच्चा स्वस्थ हो गया।" 

इसलिए तुम्हारे भीतर परमात्मा के प्रति अटूट श्रद्धा होनी चाहिए, और जब श्रद्धा होगी, विश्वास

 होगा तो हो नहीं सकता कि तुम निराश हो जाओ। एक और बात है कि इस प्रसंग में भी आपने

 देखा कि वो व्यक्ति डॉक्टर के पास नहीं गया कि मेरा बच्चा क्यों नहीं ठीक हुआ पर बाबा जी

 के पास झट से चला गया, इसका कारण है कि हम संतो को निचा दिखाने में थोड़ा भी विलम्ब 

नहीं करते। और इसका कारण है कि हम मे अपने धर्म के प्रति कोई श्रद्धा नहीं है, हम खुद अपने 

धर्म कि निंदा करते हैं। पर याद रखीये अगर धर्म नहीं तो हम नहीं। इसलिए अपने धर्म पर

साधू 

- सन्तो पर, भगवान पर श्रद्धा, विश्वास बना कर रखे।

Wednesday, 27 November 2013

धुरी रा धोरा री धरती, आ माटी मारवाड़ री

धुरी रा धोरा री धरती, आ माटी मारवाड़ री !!

आ माटी है मेवाड़ री , आ माटी है मारवाड़ री !!

जण माटी माते जनमिया राणा प्रताप जेरा शेर है !

आबू रो घणो उचो भाखर ने, रेतीलो जैसलमेर है !!

राजस्थान रो दर्शन कर ने दिल में वीरता डोले है !

माटी रा कण कण में भाया अटा री वीरता बोले है !!

धुरी रा धोरा री धरती, आ माटी मारवाड़ री !!

आ माटी है मेवाड़ री , आ माटी है मारवाड़ री !!

राज पूतों री गौरव गाथा जग में मशहूर है !

मारवाड़ ने मेवाड़ दोनों सगला भाई शुर वीर है !!

अण माटी री जग में बड़ी अजर अमर कहानी है !

बलिदान कबूल कियो पण हार कभी न मानी है !!

धुरी रा धोरा री धरती, आ माटी मारवाड़ री !!

आ माटी है मेवाड़ री , आ माटी है मारवाड़ री !!

मीरा पन्नाधाय री गौरव गाथा, हर घर में गाई जावे है !

नैना नैना टाबरिया ने माँ बहना हालरिया हुलरावे है!!

शुर वीरो री आ जन्म भूमि, जन माटी रो कण कण चन्दन है !

कहे कवि दिनेश्वर माली मरुभूमि रो शत शत वंदन है !!

धुरी रा धोरा री धरती, आ माटी मारवाड़ री !!

राजस्थानी कहावते

राजस्थानी कहावते

1...
आडू कै तो खाय मरै, कै उठा मरै।
2..
ऊंखली में सिर दे जिको धमकां सैं के डरै।
3..
कपूत जायो भलो न आयो।
4...
करमहीन खेती कैर, के काल पडै के बलद मरै।
5..
कागलां कै सराप सूं ऊंट कोनी मरै।
6..
कातिक की छांट बुरी, बाणियां की नांट बुरी,
भायां की आंट बुरी, राज की डांट बुरी।
7..
गरीब की लुगाई, जगत की भोजाई।
8..
घर में सालो, दीवाल में आलो, आज नहीं तो काल दिवालो।
9..
घी खाणूं तो पगड़ी राख कर खाणूं।
10..
चौमासे को गोबर लीपण को, न थापण को।
11..
जल को डूब्यो तिर कर निकलै, तिरिया डूब्यो बह ज्याय।
12..
जाट कहै सुम जाटणी इणी गांव में रैणो,
ऊंट बिलाई लेगई हांजी हांजी कहणों।
13..
तिरिया चरित न जाणे कोय, खसम मार के सत्ती होय।
14..
दुनिया में दो गरीब है, कै बेटी, कै बैल।
15..
दूर जंवाई फूल बरोबर, गांव जंवाई आदो
घर जांवई गधै बरोबर, चाये जितणो लादो।
16..
फूड़ को मैल फागण में उतरै।
17..
बाबाजी धूणी तपो हो ? कहो, भाया काय जाणै है।
18..
बाबाजी बछड़ा घेरो। कह, बछड़ा घेरता तो स्यामी क्यूं होता ?
19..
मतलब की मनुहार जगत जिमावै चूरमा।
20..
मा कै सरायां पूत कोन्यां सरायो जाय, जगत कै सरायां सरायो जाय।
21..
मूरख न टक्को दे देणूं, पण अक्कल नहीं देणी।

Thursday, 21 November 2013

कबीर जी का काम था सब दिन भगवान का नाम कीर्तन करना

एक दिन संत कबीरदास जी की कुटिया के पास में आ कर एक वैश्या ने सुन्दर महल बना कर अपना कोटा जमा दिया ! कबीर जी का काम था सब दिन भगवान का नाम कीर्तन करना पर वैश्या के यहाँतो सारा दिन गंदा - गंदा संगीत सुनाई देता. एक दिन कबीरजी उस वैश्या के यहाँ गए और कहा की:-'देख बहन ! तुमारे यहाँ बहुत खराब लोग आते है. यहाँ बहुत गंदे - गंदे शब्द बोलते है, और मेरे भजन में विक्शेप पड़ता है. तो आप कही और जा के नही रह सकती है क्या ? संत की बात सुनकर वैश्या भड़क गयी और कहा की :- अरे फ़कीर तू मुझे यहाँ से भगाना चाहता है कही जाना है तो तु जा कर रह, पर मैं यहाँ से कही जाने वाली नही हूँ. कबीरजी ने कहा:- ठीक है जैसी तेरी मर्जी. कबीरदास जी अपनी कुटिया में वापिस आ गए और फिर से अपने भजन कीर्तन में लग गये. जब कबीरजी के कानो में उस वैश्या के घुघरू की झंकार और कोठे पर आये लोगो के गंदे - गंदे शब्द सुनाई पड़ते तो कबीर जी अपने भजन कीर्तन की ध्वनी और भी ऊँचे स्वर मे करने लगते. कबीर जी के भजन-कीर्तन के मधुर स्वर सुनकर जो वैश्या के कोठे पर आने-जाने वाले लोग थे वे सब धीरे धीरे कबीर जी के पास बैठ कर उनके भजन कीर्तन सुनने लग गए. वैश्या ने देखा की ये फ़कीर तो जादूगर है इसने मेरा सारा धंधा चोपट कर दिया. अब तो वे सब लोग उस फ़कीर के साथ ही भजनों की महफ़िल जमाये बैठे है. वैश्या ने क्रोधित हो कर अपने यारो से कहा की तुम इस फ़कीर जादूगर की कुटिया जला दो ताकि ये यहाँ से चला जाये! वैश्या के आदेश पर उनके यारों ने संत कबीर कि कुटियां में आग लगा दी , कुटिया को जलती देख संत कबीरदास बोले:- वहा ! मेरे मालिक अब तो तू भी यही चाहता है कि में ही यहाँ से चला जाऊं , प्रभु ! जब अब आपका आदेश है तो जाना ही पड़ेगा. संत कबीर जाने ही वाले थे भगवान से नही देखा गया अपने भक्त का अपमान , उसी समय भगवान ने ऐसी तूफानी सी हवा चलायी उस कबीर जी कि कुटिया कि आग तो बुझ गयी और उस आग ने वैश्या के कोटे को पकड़ ली. वैश्या के देखते ही देखते उनका कोठा जलने लगा, वैश्या का कोठा धु धु कर जलने लगा वो चीखती चिल्लाती हुए कबीर जी के पास आकर कहने लगी :-अरे कबीर जादूगर देख देख मेरा सुन्दर कोठा जल रहा है. मेरे सुनदर पर्दे जल रहे है. वे लहराते हुए झूमर टूट रहे है. अरे जादूगर तू कुछ करता क्यों नही !! कबीर जी को जब अपने झोपडी कि फिकर नही थी तो किसी के कोठे से उनको क्या लेना देना ! कबीर जी खड़े खड़े हंस ने लगे. कबीर कि हंसी देख वैश्या क्रोधित हो कर बोली अरे देखो देखो यारों इस जादूगर ने मेरे कोठे में आग लगा दी अरे देख कबीर जिसमे तूने आग लगायी वो कोठा मेने अपना तन , मन , और अपनी इज्ज्त बेच कर बनाया और तूने मेरे जीवन भर की कमाई पूंजी को नष्ट कर दिया !! कबीरजी मुस्कुरा कर बोले कि देख बहन ! तू फिर से गलती कर रही है ये आग न तूने लगायी न मेने लगायी ! ये तो अपने यारों ने अपनी यारी निभायी !! तेरे यारो ने तेरी यारी निभायी तो मेरा भी तो यार बैठा है ! मेरा भी तो चाहने वाला है! जब तेरे यार तेरी वफ़ा दारी कर सकते है तो क्या मेरा यार तेरे यारों से कमजोर है क्या ? कुटिल वैश्या की कुटिलाई संत कबीर की कुटिया जलाई ! श्याम पिया के मन न भाई !! तूफानी गति देय हवा की वैश्या के घर आग लगायी ! श्याम पिया ने प्रीत निभाई !! वैश्या समझ गयी कि "मेरे यार खाख बराबर, कबीर के यार सिर ताज बराबर" उस वैश्या को बड़ी ग्लानि हुई कि मैं मंद बुद्धि एक हरी भक्त का अपमान कर बैठी भगवान मुझे शमा करे!! कबीरदासजी और वैश्या के तर्क से हमे यही समझने को मिलता है कि भगवान के भक्त कभी भगवान से शिकायत नही करते कैसी भी विपति आ जाये उसको भगवान का आदेस समझ कर स्वीकार करते है , और भगवान अपने भक्त का मान कभी घटने नही देते ! इसलिए भगवान कहते है कि "भक्त हमारे पग धरे तहा धरूँ मैं हाथ ! सदा संग फिरू डोलू कभी ना छोडू साथ !! { ज़ै ज़ै श्री राधे } श्री राधे राधे तो बोलना ही पड़ेगा…

सत्य एक है परन्तु ज्ञानी उसे विभिन्न नामो से पुकारते हैं

"एकं सत्या विप्र: बहुदं वदन्ति" ::

सत्य एक है परन्तु ज्ञानी उसे विभिन्न नामो से पुकारते हैं अर्थात ईश्वर ही सत्य है परन्तु लोग उन्हें कई नामो से पुकारते हैं एक समय की बात है की महर्षि गौतम भगवान शंकर को खाने पर आमंत्रित किया । उनके इस आग्रह को शिव जी ने स्वीकार कर लिया उनके साथ चलने के लिए भगवान विष्णु और ब्रह्मा जी भी तैयार हो गए ।महर्षि के आश्रम मे पहुच कर तीनो वहाँ बैठ गए ।भोले बाबा और श्री हरी विष्णु एक शय्या पर लेटकर बहुत देर तक प्रेमालाप करते रहे ।इसके बाद उन दोनो ने आश्रम के पास ही एक तालाब मे नहाने चले गए वहा पर भी वे बहुत देर तक जलक्रीडा करते रहे ।भगवान शिव जी ने पानी मे खडे श्री हरी पर जल की कोमल बुन्दो से प्रहार किया इस प्रहार को विष्णु जी सहन ना कर सके और अपनी आँखें मुँद ली। इस पर भी भगवान शिव जी को संतोष नही मिला और वे झट से कुदकर वे विष्णु जी के कंधे पर चढ गए और भगवान विष्णु को कभी पानी मे दबा देते तो कभी पानी के उपर ले आते इस प्रकार बार-बार तंग करने पर विष्णु जी ने भी अब शिव जी को पानी मे दे मारा । दोनो के इस प्रकार के खेल को देखकर देवता गण हर्षित हो रहे थे और दोनो की लीला को देखकर मन ही मन उन्हे प्रणाम कर रहे थे। उसी समय नारद जी वहाँ से गुजर रहे थे ये लीला देखकर वे सुंदर वीणा बजाने लगे और गाना भी गाने लगे उनके साथ शिव जी भी भीगे शरीर मे ही सुर से सुर मिलाने लगे फिर तो विष्णु जी भी पानी से बाहर आकर म्रदंग बजाने लगे ।जब ब्रह्मा जी ने स्वर सुना तो फिर वे भी मस्ती के इस क्रम मे शामिल हो गए।बची-खुची जो भी कसर थी वो श्री हनुमान जी ने पुरी कर दी जब वे राग आलापने लगे तो सभी चुप हो कर शान्ति से उनका संगीत सुनने लगे ।सभी देव,नाग,किन्नर,गन्धर्व आदि उस अलौकिक लीला को देख रहे थे और अपनी आँखें धन्य कर रहे थे। उधर महर्षि गौतम ये सोचकर परेशान थे कि स्नान को गए मेरे पुज्य अतिथि गण अब तक क्यो नही आए उन्हे चिन्ता हो रही थी और इधर तो भगवान को धमाचोकड़ी मचाने से फुर्सत कहा। सब एक दुसरे के गाने बजाने मे इतने मगन थे कि उन्हे ये भी याद न रहा कि वे महर्षि गौतम के अतिथि बन यहाँ आए हैं ।फिर महर्षि गौतम ने बड़ी ही मुश्किल से उन्हे भोजन के लिए मनाया आश्रम लेकर आए और भोजन परोसा ।तीनो ने भोजन करना शुरु किया ।इसके बाद हनुमान जी ने फिर संगीत गाना शुरु कर दिया।सुर मे मस्त शिव जी ने अपने एक पैर को हनुमान जी के हाथों पर और दुसरे पैर को हनुमान जी सीने,पेट,नाक,आँख आदि अंगो का स्पर्श कर वही लेट गये।यह देखकर भगवान विष्णु ने हनुमान से कहा - "हनुमान तुम बहुत ही भाग्यशाली हो जो शिव जी के चरण तुम्हारे शरीर को स्पर्श कर रहे है ।जिस चरणो की छाव पाने के लिए सभी देव-दानव आदि लालायीत रहते है उन चरनो की छाव सहज ही तुम्हे प्राप्त हो गये है । अनेक साधु-संत और कई साधक जन्मो तक तपस्या और साधना करते है फिर भी उन्हे ये शौभाग्य प्राप्त नही होता।मैंने भी सहस्त्र कमलो से इनकी अर्चना की थी पर ये सुख मुझे भी न मिला। आज मुझे तुमसे इर्श्या का अनुभव हो रहा हैं ।सभी लोको मे यह बात सब जानते है कि नारायण भगवान शंकर के परम प्रितीभाजन है पर यह देखकर मुझे संदेह-सा हो रहा है।" यह सुन कर भगवान शिव शंकर बोल उठे - "हे नारायण ये क्या कह रहे है आप तो मुझे प्राणो से भी प्यारे है। औरो की क्या बात है देवी पार्वती भी आपसे अधिक प्रिय नही है मेरे लिए आप तो जानते ही है।" भगवती पार्वती जी उधर कैलाश मे ये सोचकर परेशान हो रही थीं कि आज कैलाशपति शिव जी कहा चले गये कही मुझे से रुठकर तो नही चले गये।यह सोचकर देवी पार्वती शिव जी को ढुढते- ढुढते आश्रम पहुचे और पता चला कि मेरे स्वामी शिव जी, विष्णु जीऔर ब्रह्मा जी महर्षि गौतम के यहा मेहमानी मे गये हैं ।वे भी महर्षि गौतम का परोसा खाना खाया । इसके बाद विनोदवश देवी पार्वती शिव जी के वेश-भुशा को लेकर हंसी उड़ाई और बहुत सी ऐसी बाते कही जो अक्सर पति पत्नि प्रेम से एक दुसरे को कुछ भला बुरा कहते रहते हैं।ये बात सुनकर भगवान विष्णु जी से रहा नही गया और वे बोल उठे - "देवी! ये आप क्या कह रहे है।मुझसे आपकी बात सही नही जा रही। जहाँ शिव निन्दा होती है वहाँ मैं प्राण धारण कर नही रह सकता।" इतना कहकर श्री हरी ने अपने नाखुनो से अपने ही सिर को फाड़ने लगे ।यह देखकर सभी ने उन्हे रोकने की कोशिश की पर वे नही मान रहे थे फिर शिव जी के अनुरोध पर वे रुके। ऐसे ही एक बार नारद मुनि जो की स्वयं ही विष्णु के अवतार शिव जी से कहने लगे हे महादेव आप ही इस जगत के स्वामी है आप से बड़ा इस जगत मैं कोई नहीं है आप नारायण से से भी ऊपर हैं तब महादेव अपने कानो को बंद कर क्रोधित होकर बोले मैं इस जगत का स्वामी नहीं हूँ और जहाँ तक नारायण से ऊपर होने की बात हैं मैं तो उनकी की दया का पात्र भी नहीं हूँ मैं तो एक बहुत ही अधम से अधम व्यक्ति हूँ जो की उनके भक्तो के जो भक्त है उनकी सेवा करता हूँ इनके इस प्रेम को देखकर हमे ये समझना चाहिए कि ये दोनो किसी भी प्रकार से अलग नही है दोनों एक ही हैं बस नाम अलग अलग हैं

भगवान श्रीकृष्ण को गाय इतनी प्यारी थी

भगवान श्रीकृष्ण को गाय इतनी प्यारी थी कि उन्होने अपनी वाल्यावस्था गौमाता के मातृत्व एवं सान्निध्य मेँ व्यतीत की थी। नन्दबाबा के यहाँ हजारोँ गाये थी इन्हेँ चराने एवं पालन के लिये सैँकड़ो सेवक मौजूद रहते थे मगर कृष्ण जी अपने ग्वाल वालो के साथ नंगे पैर वनोँ मेँ गायोँ को चराने खुद जाते थे। बिना गाय और ग्वाल के तो श्रीकृष्ण की बाल लीलाओँ का कोई अर्थ नहीँ था। गाय का सात्विक दूध, दही और माखन तो भगवान ने भी चुरा-चुराकर खाया और जग मेँ माखन चोर कहलाये। विद्वान कहते हैँ कि श्रीकृष्ण ने 'गोवर्धन पर्वत' उठाकर गौवंश बढ़ाने (गो + वर्धन = गौ वंश मेँ वृद्धि) का सन्देश भी दिया था। भारतीय धर्मग्रन्थोँ मेँ पृथ्वी तथा गाय को जन्म देने वाली माता के समान आदरणीय कहा गया है गाय भारतीय संस्कृति का प्राण है। यह गंगा, गायत्री, भगवान की तरह पूज्य है। शास्त्रोँ मेँ इसे समस्त प्राणीयोँ की माता कहा गया है। इसी कारण आर्य संस्कृति शैव, वैष्णव, शाक्त, गाणपत्य, जैन, बौद्ध, सिक्ख आदि सभी धर्म-संप्रदाय गौमाता के प्रति आदर भाव रखते है। प्राचीन धर्म-ग्रन्थोँ मेँ बताया गया है कि गौमाता के अंगोँ मेँ देवताओँ का निवास होता है। पद्मपुराण के अनुसार गौमाता के सिर मेँ ब्रह्मा, ललाट मेँ वृषभध्वज, मध्य मेँ विविध देवगण और रोम-रोम मेँ महर्षियोँ का वास है। गौमाता की पूंछ मेँ शेषनाग, खुरोँ मेँ अप्सराओँ, मूत्र मेँ गंगाजी तथा नेत्रोँ मेँ सूर्य- चंद्रमा का निवास होता है। गाय के मुख मेँ चारोँ वेदोँ, कानो मेँ अश्विनी कुमारोँ, दातोँ मेँ गरुण, जिह्वा मेँ सरस्वती तथा अपान मेँ सारे तीर्थोँ का निवास होता है। भविष्य पुराण, स्कन्द पुराण, ब्रह्मांड पुराण और महाभारत मेँ भी गौमाता के अंग-प्रत्यंग मेँ देवी- देवताओँ की स्थिति का वर्णन है। भारतीय परंपरा है कि मृत्यु के पहले और बाद मेँ तथा प्रायः सभी धार्मिक अनुष्ठानोँ मेँ गौदान किया जाता है, जिससे जीव वैतरणी पार हो जाता है तथा अभीष्ट मनोरथ प्राप्त करता है। आज भी गौदान की परंपरा प्रचलित है। जो लोग गौमाता की सेवा करते है, पवित्र संकल्प के साथ गौदान करते है उन्हेँ वैतरणी जनित कष्ट नहीँ भोगने पड़ते। जय श्री राम। जय श्री कृष्ण। वन्दे गौ मातरम्।

भगवान श्रीकृष्ण को गाय इतनी प्यारी थी

भगवान श्रीकृष्ण को गाय इतनी प्यारी थी कि उन्होने अपनी वाल्यावस्था गौमाता के मातृत्व एवं सान्निध्य मेँ व्यतीत की थी। नन्दबाबा के यहाँ हजारोँ गाये थी इन्हेँ चराने एवं पालन के लिये सैँकड़ो सेवक मौजूद रहते थे मगर कृष्ण जी अपने ग्वाल वालो के साथ नंगे पैर वनोँ मेँ गायोँ को चराने खुद जाते थे। बिना गाय और ग्वाल के तो श्रीकृष्ण की बाल लीलाओँ का कोई अर्थ नहीँ था। गाय का सात्विक दूध, दही और माखन तो भगवान ने भी चुरा-चुराकर खाया और जग मेँ माखन चोर कहलाये। विद्वान कहते हैँ कि श्रीकृष्ण ने 'गोवर्धन पर्वत' उठाकर गौवंश बढ़ाने (गो + वर्धन = गौ वंश मेँ वृद्धि) का सन्देश भी दिया था। भारतीय धर्मग्रन्थोँ मेँ पृथ्वी तथा गाय को जन्म देने वाली माता के समान आदरणीय कहा गया है गाय भारतीय संस्कृति का प्राण है। यह गंगा, गायत्री, भगवान की तरह पूज्य है। शास्त्रोँ मेँ इसे समस्त प्राणीयोँ की माता कहा गया है। इसी कारण आर्य संस्कृति शैव, वैष्णव, शाक्त, गाणपत्य, जैन, बौद्ध, सिक्ख आदि सभी धर्म-संप्रदाय गौमाता के प्रति आदर भाव रखते है। प्राचीन धर्म-ग्रन्थोँ मेँ बताया गया है कि गौमाता के अंगोँ मेँ देवताओँ का निवास होता है। पद्मपुराण के अनुसार गौमाता के सिर मेँ ब्रह्मा, ललाट मेँ वृषभध्वज, मध्य मेँ विविध देवगण और रोम-रोम मेँ महर्षियोँ का वास है। गौमाता की पूंछ मेँ शेषनाग, खुरोँ मेँ अप्सराओँ, मूत्र मेँ गंगाजी तथा नेत्रोँ मेँ सूर्य- चंद्रमा का निवास होता है। गाय के मुख मेँ चारोँ वेदोँ, कानो मेँ अश्विनी कुमारोँ, दातोँ मेँ गरुण, जिह्वा मेँ सरस्वती तथा अपान मेँ सारे तीर्थोँ का निवास होता है। भविष्य पुराण, स्कन्द पुराण, ब्रह्मांड पुराण और महाभारत मेँ भी गौमाता के अंग-प्रत्यंग मेँ देवी- देवताओँ की स्थिति का वर्णन है। भारतीय परंपरा है कि मृत्यु के पहले और बाद मेँ तथा प्रायः सभी धार्मिक अनुष्ठानोँ मेँ गौदान किया जाता है, जिससे जीव वैतरणी पार हो जाता है तथा अभीष्ट मनोरथ प्राप्त करता है। आज भी गौदान की परंपरा प्रचलित है। जो लोग गौमाता की सेवा करते है, पवित्र संकल्प के साथ गौदान करते है उन्हेँ वैतरणी जनित कष्ट नहीँ भोगने पड़ते। जय श्री राम। जय श्री कृष्ण। वन्दे गौ मातरम्।

Wednesday, 20 November 2013

तुलसी का महत्व

तुलसी का महत्व भारत में तुलसी का महत्वपूर्ण स्थान है। तुलसी के तीन प्रकार होते हैं- कृष्ण तुलसी, सफेद तुलसी तथा राम तुलसी। इनमें कृष्ण तुलसी सर्वप्रिय मानी जाती है। तुलसी में खड़ी मंजरियाँ उगती हैं। इन मंजरियों में छोटे-छोटे फूल होते हैं। देव और दानवों द्वारा किए गए समुद्र मंथन के समय जो अमृत धरती पर छलका, उसी से तुलसी की उत्पत्ति हुई। ब्रह्मदेव ने उसे भगवान विष्णु को सौंपा। भगवान विष्णु, योगेश्वर कृष्ण और पांडुरंग (श्री बालाजी) के पूजन के समय तुलसी पत्रों का हार उनकी प्रतिमाओं को अर्पण किया जाता है। तुलसी का प्रतिदिन दर्शन करना पापनाशक समझा जाता है तथा पूजन करना मोक्षदायक। देवपूजा और श्राद्धकर्म में तुलसी आवश्यक है। तुलसी पत्र से पूजा करने से व्रत, यज्ञ, जप, होम, हवन करने का पुण्य प्राप्त होता है। कहते हैं भगवान श्रीकृष्ण को तुलसी अत्यंत प्रिय है। स्वर्ण, रत्न, मोती से बने पुष्प यदि श्रीकृष्ण को चढ़ाए जाएँ तो भी तुलसी पत्र के बिना वे अधूरे हैं। श्रीकृष्ण अथवा विष्णुजी तुलसी पत्र से प्रोक्षण किए बिना नैवेद्य स्वीकार नहीं करते। कार्तिक मास में विष्णु भगवान का तुलसीदल से पूजन करने का माहात्म्य अवर्णनीय है। तुलसी विवाह से कन्यादान के बराबर पुण्य मिलता है साथ ही घर में श्री, संपदा, वैभव-मंगल विराजते हैं

Sunday, 17 November 2013

धन की तीन गति होती हैं - 1.दान 2.भोग 3.नाश

आज जिसके पास धन है कलयुग के मनुष्य उस धनवान को ही सम्पन समझते है लेकिन वो यह नहीं समझते की राज्य,धन-दौलत तो दुर्योधन के पास भी था पर वह धर्मात्मा नहीं था और अंत में उसका सर्वनाश हो गया। क्योंकि ये धन हमारी मति को फिरा देता है और हमें धर्म से अधर्म की ओर ले जाता है इसलिए धन के साथ धर्म का होना अतिआवश्यक है और धर्म करने के लिए हमें उस धन का कुछ हिस्सा भगवान के शुभ कार्यों में दान करना चाहिए।
धन की तीन गति होती हैं - 1.दान 2.भोग 3.नाश।  1. दान   धन की सबसे उत्तम गति है।  2. भोग   धन की मध्यम गति है जिससे हम सुख के संसाधन एकत्रित करते हैं। धन की तीसरी गति   3. नाश    के स्वरूप में होती है जो हमें मात्र और मात्र दुःख देकर जाती है। जिन्होंने पहले दान दिया है वो आज धनी हैं और जो दान देंगे वो भविष्य में धनी होंगे व दिया हुआ अहंकार से मुक्त दान कभी भी निष्फल नहीं जाता। 
"क्या भरोसा है इस जिंदगी का,साथ देती नहीं है किसी का।
दुनिया की है हकीकत है पुरानी,चलते रुकना है इसकी रवानी।
फर्ज पूरा करो जिंदगी का,साथ देती नहीं ये किसी का।
इस जिंदगी का कोई भरोसा नहीं है इसलिए भगवान ने हमें जिन धर्म के कार्यों लिए मानव जीवन दिया है हमें उन्ही धर्म के कार्यों को करना चाहिए और अपने तन,मन,धन का सदुपयोग करना चाहिए जिससे जब हम अपने श्री कृष्ण से मिलें तो वो कहे की मेरे प्यारे तुमने मानव जीवन का सदुपयोग किया है दुरूपयोग नहीं और हमे गले से लगा ले।
॥ जय जय श्री राधे ॥ ॥ जय जय श्री राधे ॥ ॥ जय जय श्री राधे ॥

Thursday, 14 November 2013

ॐ का उच्चारण क्यों करते है

ॐ का उच्चारण क्यों करते है

हिंदू में ॐ शब्द के उच्चारण को बहुत शुभ माना जाता है. प्रायः सभी मंत्र ॐ से शुरू होते है

ॐ 

शब्द का मन, चित्त, बुद्धि और हमारे आस पास के वातावरण पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है

ॐ ही एक ऐसा शब्द है जिसे अगर पेट से बोला जाए तो दिमाग की नसों में कम्पन होता है

इसके अलावा ऐसा कोई भी शब्द नही है जो ऐसा प्रभाव डाल सके|

ॐ शब्द तीन अक्षरो से मिल कर बना है जो है ”, “और ”| जब हम पहला अक्षर ” 

का उच्चारण करते है तो हमारी वोकल कॉर्ड या स्वरतन्त्री खुलती है और उसकी वजह से हमारे 

होठ भी खुलते है| दूसरा अक्षर बोलते समय मुंह पुरा खुल जाता है और अंत में बोलते 

समय होठ वापस मिल जाते है| अगर आप गौर से देखेंगे तो ये जीवन का सार है पहले जन्म 

होता है, फिर सारी भागदौड़ और अंत में आत्मा का परमात्मा से मिलन|

ॐ के तीन अक्षर आद्यात्म के हिसाब से भी ईश्वर और श्रुष्टि के प्रतीकात्मक है| ये मनुष्य की 

तीन अवस्था (जाग्रत, स्वपन, और सुषुप्ति), ब्रहांड के तीन देव (ब्रहा, विष्णु और महेश) तीनो 

लोको (भू, भुवः और स्वः) को दर्शाता है. ॐ अपने आप में सम्पूर्ण मंत्र है