गोपाष्ठमी का महत्व एवं कथा
गोपाष्ठमी का महत्व एवं कथा
भगवान अब ‘पौगंण्ड-अवस्था’ में अर्थात छठे वर्ष में प्रवेश किया।
एक दिन भगवान मैया से बोले – ‘मैया...अब हम
बड़े हो गये है।
मैया ने कहा-
अच्छा लाला... तुम बड़े हो गये तो बताओ क्या करे?
भगवान ने कहा -
मैया अब हम बछड़े नहीं चरायेगे, अब हम गाये चरायेगे।
मैया ने कहा -
ठीक है।बाबा से पूँछ लेना...
झट से भगवान बाबा
से पूंछने गये.
बाबा ने कहा – लाला..., तुम अभी बहुत
छोटे हो, अभी बछड़े ही चराओ।
भगवान बोले- बाबा
मै तो गाये ही चराऊँगा।
जब लाला नहीं
माने तो बाबा ने कहा -ठीक है लाला,.. जाओ पंडित जी को बुला लाओ, वे गौ-चारण का मुहूर्त देखकर बता देगे।
भगवान झट से
पंडितजी के पास गए बोले- पंडितजी.... बाबा ने बुलाया है
गौचारण का
मुहूर्त देखना है आप आज ही का मुहूर्त निकल दीजियेगा,
यदि आप ऐसा करोगे
तो मै आप को बहुत
सारा माखन दूँगा
।
पंडितजी घर आ गए
पंचाग खोलकर बार-बार अंगुलियों पर गिनते,..
बाबा ने पूँछा
-पंडित जी क्या बात है? आप बार-बार क्या गिन रहे है ?
पंडित जी ने कहा – क्या बताये,..नंदबाबाजी, केवल आज ही का मुहूर्त निकल रहा है इसके
बाद तो एक वर्ष तक कोई मुहूर्त है ही नहीं।
बाबा ने गौ चारण
की स्वीकृति दे दी ।
भगवान जिस समय, जो काम करे, वही मुहूर्त बन जाता है उसी दिन भगवान
ने गौचारण शुरू किया वह शुभ दिन कार्तिक-माह का “गोपा-अष्टमी” का दिन था।
माता यशोदा जी ने
लाला का श्रृंगार कर दिया और जैसे ही पैरों में जूतियाँ पहनाने लगी तो बाल कृष्ण
ने मना कर दिया और कहने लगे - मैया !
यदि मेरी गौ जुते
नही पहनती तो मै कैसे
पहन सकता हूँ
यदि पहना सकती हो
तो सारी गौओ को जूतियाँ पहना दो।फिर में भी पहन लूंगा ।
और भगवान जब तक
वृंदावन में रहे कभी भगवान ने पैरों में जूतियाँ नाही पहनी।
अब भगवान अपने
सखाओ के साथ गौए चराते हुए वृन्दावन में जाते और अपने चरणों से वृन्दावन को अत्यंत
पावन करते।
यह वन गौओ के लिए
हरी-हरी घास से युक्त एवं रंग- बिरंगे पुष्पों की खान हो रहा था, आगे-आगे गौएँ उनके पीछे-पीछे बाँसुरी
बजाते हुए श्यामसुन्दर तदन्तर बलराम और फिर श्रीकृष्ण के यश का गान करते हुए
ग्वालबाल।
इस प्रकार विहार
करने के लिए उन्होंने उस वन में प्रवेश किया। और तब से गौ चारण लीला करने लगे।
भगवान कृष्ण का
"गोविन्द" नाम भी गायों की रक्षा करने के कारण पडा था क्योंकि भगवान
कृष्ण ने गायों तथा ग्वालों की रक्षा के लिए सात दिन तक गोवर्धन पर्वत को अपनी
छोटी अंगुली पर उठाकर रखा था।
आठवें दिन इन्द्र
अपना अहं त्याग कर भगवान कृष्ण की शरण में आया था।
उसके बाद कामधेनु
ने भगवान कृष्ण
का अभिषेक किया।
और इंद्र ने भगवान को गोविंद कहकर संबोधित किया ।
और उसी दिन से
इन्हें गोविन्द के नाम से पुकारा जाने लगा।
इसी दिन से
अष्टमी के दिन गोपाष्टमी का पर्व मनाया जाने लगा।
गौ ही सबकी माता
है, भगवान भी गौ की पूजा करते है, सारे देवी-देवो का वास गौ में होता है,
जो गौ की सेवा
करता है गौ उसकी सारी इच्छाएँ पूरी कर देती है।
तीर्थों में
स्नान-दान करने से,
ब्राह्मणों को
भोजन कराने से,
व्रत-उपवास और
जप-तप और हवन-यज्ञ करने से,
जो पुण्य मिलता
है, वही पुण्य गौ को चारा या हरी घास खिलाने से प्राप्त हो जाता
है।।
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