भगवान श्रीकृष्ण
को गाय इतनी प्यारी थी कि उन्होने अपनी वाल्यावस्था गौमाता के मातृत्व एवं
सान्निध्य मेँ व्यतीत की थी। नन्दबाबा के यहाँ हजारोँ गाये थी इन्हेँ चराने एवं
पालन के लिये सैँकड़ो सेवक मौजूद रहते थे मगर कृष्ण जी अपने ग्वाल वालो के साथ नंगे
पैर वनोँ मेँ गायोँ को चराने खुद जाते थे। बिना गाय और ग्वाल के तो श्रीकृष्ण की
बाल लीलाओँ का कोई अर्थ नहीँ था। गाय का सात्विक दूध, दही और माखन तो भगवान ने भी चुरा-चुराकर खाया
और जग मेँ माखन चोर कहलाये। विद्वान कहते हैँ कि श्रीकृष्ण ने 'गोवर्धन पर्वत' उठाकर
गौवंश बढ़ाने (गो + वर्धन = गौ वंश मेँ वृद्धि) का सन्देश भी दिया था। भारतीय
धर्मग्रन्थोँ मेँ पृथ्वी तथा गाय को जन्म देने वाली माता के समान आदरणीय कहा गया
है गाय भारतीय संस्कृति का प्राण है। यह गंगा, गायत्री, भगवान की तरह पूज्य है। शास्त्रोँ मेँ इसे
समस्त प्राणीयोँ की माता कहा गया है। इसी कारण आर्य संस्कृति शैव, वैष्णव, शाक्त, गाणपत्य, जैन, बौद्ध, सिक्ख
आदि सभी धर्म-संप्रदाय गौमाता के प्रति आदर भाव रखते है। प्राचीन धर्म-ग्रन्थोँ
मेँ बताया गया है कि गौमाता के अंगोँ
मेँ देवताओँ का निवास होता है। पद्मपुराण के अनुसार गौमाता के सिर मेँ ब्रह्मा, ललाट मेँ वृषभध्वज, मध्य मेँ विविध देवगण और रोम-रोम मेँ महर्षियोँ
का वास है। गौमाता की पूंछ मेँ शेषनाग, खुरोँ
मेँ अप्सराओँ, मूत्र मेँ गंगाजी
तथा नेत्रोँ मेँ सूर्य- चंद्रमा का निवास होता है। गाय के मुख मेँ चारोँ वेदोँ, कानो मेँ अश्विनी कुमारोँ, दातोँ मेँ गरुण, जिह्वा
मेँ सरस्वती तथा अपान मेँ सारे तीर्थोँ का निवास होता है। भविष्य पुराण, स्कन्द पुराण, ब्रह्मांड
पुराण और महाभारत मेँ भी गौमाता के अंग-प्रत्यंग मेँ देवी- देवताओँ की स्थिति का
वर्णन है। भारतीय परंपरा है कि मृत्यु के पहले और बाद मेँ तथा प्रायः सभी धार्मिक
अनुष्ठानोँ मेँ गौदान किया जाता है, जिससे
जीव वैतरणी पार हो जाता है तथा अभीष्ट मनोरथ प्राप्त करता है। आज भी गौदान की
परंपरा प्रचलित है। जो लोग गौमाता की सेवा करते है, पवित्र
संकल्प के साथ गौदान करते है उन्हेँ वैतरणी जनित कष्ट नहीँ भोगने पड़ते। जय श्री
राम। जय श्री कृष्ण। वन्दे गौ मातरम्।
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