"भगवान श्री कृष्ण ने कहा है " (स्वयं को अर्थात आत्मा को पदार्थ में लगाये रखना पाप है आत्मा को परमात्मा में अर्थात मुझमें लगाये रखना ही पुण्य है)
पाप का फल दुख है और पुण्य का फल आनंद है और आनंदित व्यक्ति ही आत्मा (स्वयं) को परमात्मा में लगाये रख सकता है।हमारी यात्रा है ही पदार्थ से परमात्मा तक की। पदार्थ तक सीमित रह जाना ही संसार है और जो पदार्थ को एक साधन की तरह उपयोग करते हुए उसकी व्यर्थता और सार्थकता को समझ जाता है, उसके सार और असार को समझ जाता है, वो फिर परमात्मा की तरफ यात्रा के लिए पात्र बन जाता है। ये यात्रा पदार्थ से ही शुरू होती है और पदार्थ में ही अर्थात फिर संसार में ही आत्मा भटक जाती है और इस भटकन से जो पैदा होता है वो ही पाप कर्म है।पदार्थ का उपयोग करना एक बात है और उसमें आत्मा को लगाये रखना दूसरी बात है क्योंकि पदार्थ का उपयोग किया जा सकता है बिना आत्मा को उसमे लगाये अर्थात बिना लिप्त हुए। भगवान श्रीक़ृष्ण के अनुसार यही योग की कला है।पदार्थ का सारा संबंध हमसे न होकर हमारे शरीर से होता है, पदार्थ का आत्मा से अर्थात हमसे कोई संसर्ग होता ही नहीं। आत्मा तो केवल observe करती है कि संसर्ग हुआ। जैसे भोजन शरीर करता है और आत्मा केवल witness करती है। लेकिन हम सोचते है कि शरीर नहीं बल्कि हम भोजन कर रहे हैं और ये होता है इस विचार के शरीर और हमारे(आत्मा) बीच तादात्मके कारण।पदार्थ का आत्मा पर कोई बंधन नहीं है, लेकिन हम फिर भी पदार्थ में रस लेते है और जिस विषय में हम रस लेने लगते हैं हमारा सारा ध्यान वहीं प्रवाहित होने लगता है।परमात्मा को हमने जब तक जाना नहीं, अनुभव नहीं किया उसका नाद नहीं सुना तो कैसे हमें उस रस का स्वाद लगेगा और जब तक उसका स्वाद नहीं लगेगा तो कैसे हमारा ध्यान परमात्मा की तरफ प्रवाहित होगा। हम कैसे परमात्मा में ध्यान लगा पाएंगे? कैसे फिर हमसे कोई पुण्य होगा? इसके लिए ही सतगुरु योगेश्वर श्रीक़ृष्ण अर्जुन से कहते है कि “सर्वधर्मानु परितज्य, मामेकम शरणम व्रज” अर्थात तू अपने सब धर्म छोड़ कर केवल मेरी शरण आ जा। आशय ये है कि उस सतगुरु के शरणागत हो जाओ, उसके चरणों में समर्पित हो जाओ जो हमें कृष्ण भगवान की तरह उसका रस प्रदान कर सके, उसका अंतर्घट में दर्शन करा सके जिस तरह अर्जुन ने किया था ताकि उसका स्वाद हमें लग जाए और फिर तभी हमारा ध्यान परमात्मा की ओर प्रवाहित होगा अर्थात हम फिर स्वयं को अर्थात आत्मतत्व को परमात्मा में लगा सकेंगे और यही भक्ति है क्योंकि भक्ति का मतलब होता है परम से प्रेम, परम के सागर में डूब जाना। फिर ये भी निश्चित है कि हमसे जो भी होगा वो पुण्य ही पुण्य होगा॥
By:- Laxman ram jakhar dharasar 08758903215.09982931932
पाप का फल दुख है और पुण्य का फल आनंद है और आनंदित व्यक्ति ही आत्मा (स्वयं) को परमात्मा में लगाये रख सकता है।हमारी यात्रा है ही पदार्थ से परमात्मा तक की। पदार्थ तक सीमित रह जाना ही संसार है और जो पदार्थ को एक साधन की तरह उपयोग करते हुए उसकी व्यर्थता और सार्थकता को समझ जाता है, उसके सार और असार को समझ जाता है, वो फिर परमात्मा की तरफ यात्रा के लिए पात्र बन जाता है। ये यात्रा पदार्थ से ही शुरू होती है और पदार्थ में ही अर्थात फिर संसार में ही आत्मा भटक जाती है और इस भटकन से जो पैदा होता है वो ही पाप कर्म है।पदार्थ का उपयोग करना एक बात है और उसमें आत्मा को लगाये रखना दूसरी बात है क्योंकि पदार्थ का उपयोग किया जा सकता है बिना आत्मा को उसमे लगाये अर्थात बिना लिप्त हुए। भगवान श्रीक़ृष्ण के अनुसार यही योग की कला है।पदार्थ का सारा संबंध हमसे न होकर हमारे शरीर से होता है, पदार्थ का आत्मा से अर्थात हमसे कोई संसर्ग होता ही नहीं। आत्मा तो केवल observe करती है कि संसर्ग हुआ। जैसे भोजन शरीर करता है और आत्मा केवल witness करती है। लेकिन हम सोचते है कि शरीर नहीं बल्कि हम भोजन कर रहे हैं और ये होता है इस विचार के शरीर और हमारे(आत्मा) बीच तादात्मके कारण।पदार्थ का आत्मा पर कोई बंधन नहीं है, लेकिन हम फिर भी पदार्थ में रस लेते है और जिस विषय में हम रस लेने लगते हैं हमारा सारा ध्यान वहीं प्रवाहित होने लगता है।परमात्मा को हमने जब तक जाना नहीं, अनुभव नहीं किया उसका नाद नहीं सुना तो कैसे हमें उस रस का स्वाद लगेगा और जब तक उसका स्वाद नहीं लगेगा तो कैसे हमारा ध्यान परमात्मा की तरफ प्रवाहित होगा। हम कैसे परमात्मा में ध्यान लगा पाएंगे? कैसे फिर हमसे कोई पुण्य होगा? इसके लिए ही सतगुरु योगेश्वर श्रीक़ृष्ण अर्जुन से कहते है कि “सर्वधर्मानु परितज्य, मामेकम शरणम व्रज” अर्थात तू अपने सब धर्म छोड़ कर केवल मेरी शरण आ जा। आशय ये है कि उस सतगुरु के शरणागत हो जाओ, उसके चरणों में समर्पित हो जाओ जो हमें कृष्ण भगवान की तरह उसका रस प्रदान कर सके, उसका अंतर्घट में दर्शन करा सके जिस तरह अर्जुन ने किया था ताकि उसका स्वाद हमें लग जाए और फिर तभी हमारा ध्यान परमात्मा की ओर प्रवाहित होगा अर्थात हम फिर स्वयं को अर्थात आत्मतत्व को परमात्मा में लगा सकेंगे और यही भक्ति है क्योंकि भक्ति का मतलब होता है परम से प्रेम, परम के सागर में डूब जाना। फिर ये भी निश्चित है कि हमसे जो भी होगा वो पुण्य ही पुण्य होगा॥
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