भादों की अष्टमी थी। मूसलाधार पानी बरस रहा था। यमुना में बाढ़ आ गई थी, पूरे उफान पर थी यमुना। ऐसी भयंकर बारिश में कौन कहाँ जाएगा? इसीलिए सो गए थे सभी पहरेदार और जेल में जन्म दिया था, देवकी ने अपनी आठवीं संतान पुत्र को।
विलक्षण बात तो यह थी कि पुत्र के जन्म लेते ही खुल गए थे सभी बंधन माँ-बाप के। उनके आश्चर्य का ठिकाना न रहा जब आँधी, तूफान ने जेल के बंद किवाड़ों को भी खोल दिया था। वासुदेव की आँखें चमक उठी थीं।
आनन-फानन वासुदेव ने अपने लाडले को कपड़े में लिपटाया और छिपा दिया था टोकरी में। टोकरी को वासुदेव ने धरा सिर पर और ले चले गोकुल-यमुना पार। पर यमुना तो विकराल बनी थी, पूरे उफान पर थी। वासुदेन न डरे और न रुके, चल पड़े यमुना में।
पहले उनके घुटनों तक पानी आया, फिर कमर तक, फिर छाती तक और फिर सिर तक आ गया। पर वासुदेव के पैर नहीं थमे, बढ़ते गए मंजिल की ओर। यमुनाजी प्रभु के चरण छूने के लिए व्याकुल हो गईं। अंतर्यामी बाल-प्रभु यमुना के मन की बात समझ गए। उन्होंने अपने चरण-स्पर्श से यमुना की व्यथा को दूर किया। यमुना-मैया उतरने लगी।
वासुदेव ने नंदबाबा के घर जाकर अपने पुत्र को यशोदाजी के पास सुला दिया।
वासुदेव की आँखें अपलक निहार रही थीं अपने दुलारे को। आँसू रुक नहीं रहे थे, भिगो रहे थे दोनों के तन-मन को। मन में भय था वासुदेव के, न जाने कब देख पाएँगे अपने दुलारे को। देख भी पाएँगे कभी या नहीं। पर मन में कहीं अटूट भरोसा था अपने सखा नंद पर, इसीलिए अपने पुत्र रत्न को जल्दी से यशोदा की गोद में डाल वे उनकी नवजात कन्या लेकर वे कारागार में लौट गए।
यशोदा की गोद भर गई थी। ढोलक की थाप और सोहर के गीतों से गूँज उठा था घर-द्वार और ग्वालिनों के लिए राग-रंग उत्सव, उल्लास का दिन था वह। भूल गई थीं वे दूध बिलौना और छछिया बेचना। सभी के कदम बढ़ गए थे यशोदा के द्वार पर, जहाँ कान्हा, झूल रहे थे।
ग्वालिनों में यशोदा निहाल हो गई थी पुत्र पाकर। वह आज गर्वीली सी थी। होती भी क्यों नहीं? घर आँगन भर गया था उसका, मनचाही खुशियों से। बाबा नन्द की खुशियों का पारावार ही न था वे तो मात्र हँस-हँस कर सबसे मिल रहे थे। उनकी वीणा तो मानो मूक हो गई थी।
इसी कान्हा ने दूध पीते-पीते पूतना के प्राण पी लिए थे। माखन चुराते-चुराते अपने सखाओं का मन जीत लिया था। डरा दिया था इसने यशोदा मैया को अपने मुख में ब्रह्मांड दिखाकर। पेड़ों पर उछल-कूद मचाते, कर दिया था इसने कालीनाग का मर्दन और उसके फन पर नृत्य करते मुस्कुराते हुए, यमुना नदी से बाहर आ गए थे विजयी मुद्रा में।
इसकी बंसी की धुन सुनकर गौएँ और गोपियाँ अपनी सुध-बुध भूल जाती थीं। हो जाती थीं गोपियाँ इसके महारास के रस में सराबोर। ऐसा था यशोदा मैया का छोरा कन्हैया। यही नटखट, माखनचोर, बंसी बजैया, कान्हा मथुरा में आकर बन गया कृष्ण।
महाभारत युद्ध में यही कृष्ण बना धनुर्धर अर्जुन का सारथी। कुरुक्षेत्र में युद्ध का शंखनाद हो चुका था। रणभेरी गूँज उठी थी, परंतु यह क्या? महारथी अर्जुन के हाथ-पाँव शिथिल होने लगे। मुँह सूखने लगा। शरीर में कँपकपी होने लगी। आँखें आँसुओं से भर आईं, मन विषाद से। हाथ से गांडीव सरककर जमीन पर गिर पड़ा, क्योंकि पृथा-पुत्र के मस्तिष्क पर छा गया था मोह।
देखा था परंतप अर्जुन ने विपक्ष में खड़े अपने दादा, परदादा, आचार्यों, मामाओं, पुत्र-पौत्रों, मित्रों, स्वजनों, परिजनों और बंधुजनों को। सोचने लगे कि जिनके हाथों ने मुझे झुलाया, जिनकी गोद में खेलकर मैं बड़ा हुआ, जिनके आश्रम में रहकर मैंने विद्या पाई, जिन्होंने मुझे धनुष-बाण चलाना सिखाया क्या उन्हीं से युद्ध करूँ?
इन्हें मारने से तो बेहतर होगा कि मैं भीख माँगकर खाऊँ। इन सभी के खून से लथपथ, सना हुआ राज्य लेकर मैं क्या करूँगा। चले गए थे विषादग्रस्त पार्थ, कृष्ण की शरण में शिष्य भाव से। ऐसे में श्रीकृष्ण ने समझाया था यूँ उस किंकर्तव्यविमूढ़ पार्थ को।
हे पार्थ! जो जन्मता है वह मरता है। जो मरता है वह जन्मता है। यह है प्रकृति का अटूट नियम। मनुष्य जैसे पुराने वस्त्रों को छोड़कर कर लेता है नए वस्त्र धारण वैसे ही देही पुराने शरीर को छोड़कर धारण कर लेता है नए शरीर को। न तो यह आत्मा जन्म लेती है और न मरती है।
आत्मा को न शस्त्र काट सकते हैं, न अग्नि जला सकती है, न जल गिरा सकता है, न वायु सुखा सकती है। यह आत्मा अजन्मा, नित्य शाश्वत और सनातन है। जो आत्मा को मरने वाला समझता है, जो इसे मरा हुआ मानता है, वे दोनों ही नहीं जानते कि न तो आत्मा मरती है और न ही मारी जाती है, इसीलिए सुख-दुःख, लाभ-हानि, जय-पराजय को एक मानकर तुम युद्ध करो।
हे धनंजय! कर्म करने में ही तुम्हारा अधिकार है, उसके फलों में नहीं। तुम कर्मफल का कारण भी मत बनो। कर्म न करने में भी तुम्हारी आसक्ति नहीं होनी चाहिए। तुम योगस्थ होकर कर्म करो, क्योंकि सिद्धि-असिद्धि, हर्ष-विषाद में समभाव से रहना ही योग है। 'समत्वं योग उच्यते।' कर्मों की कुशलता ही योग है। 'योगः कर्मसु कौशलम्।'
इन्द्रियों को अंतर्मुखी कर, मन को संयमित और नियंत्रित कर, बुद्धि को स्थिर कर तुम 'स्थितप्रज्ञ' बनो। कर्म न करने से कर्म करना श्रेष्ठ है। तुम कर्मफल में आसक्त हुए बिना ही कर्म करो। कर्मों की गति गहन है।
कर्म संन्यास और कर्मयोग दोनों ही मुक्ति देने वाले हैं, परंतु कर्म संन्यास की अपेक्षा कर्मयोग श्रेष्ठ है। कर्मफल में आसक्ति को त्यागकर कर्मों को ब्रह्म में समर्पित करके कार्य करना श्रेयस्कर है, कर्म करते हुए कर्मफलों को त्यागने से ही मनुष्य त्यागी बनता है।
हे नरश्रेष्ठ अर्जुन! प्रत्येक वर्ण के अपने-अपने कर्म हैं। पराक्रम, तेज, धर्म, चतुराई, युद्ध से मुँह न मोड़ना, दान और ईश्वरभाव ये क्षत्रिय के स्वाभाविक कर्म हैं। हे कुरुश्रेष्ठ! यदि अहंकार का आश्रय लेकर तुम यह समझते हो कि युद्ध नहीं करोगे तो तुम्हारा निश्चय व्यर्थ है, क्योंकि तुम्हारा क्षत्रिय स्वभाव तुम्हें युद्ध में प्रवृत्त करके ही रहेगा।
हे कौन्तेय! तुम मोह के कारण युद्ध नहीं करना चाहते, परंतु तुम अपने स्वभावज कर्म के कारण युद्ध करोगे। यूँ भी स्वधर्म में मरना श्रेयस्कर है। 'स्वधर्में निधनं श्रेयः' इसलिए सब धर्मों को त्यागकर तुम केवल मेरी शरण में आ जाओ। 'मामेकं शरणं व्रज।'
हे धनुर्धर अर्जुन! जो शोक करने के योग्य नहीं है उन बान्धवों के लिए तुम शोक कर रहे हो। मोह से उत्पन्न हुए शोक को तुम त्याग दो। तुम युद्ध करो। 'ततस्पाद् युध्यस्व भारत।' कर्म के इस संदेश को पार्थ ने सुना था।
योगेश्वर श्रीकृष्ण के मुखारविन्द और वे प्रवृत्त हो गए थे अपने धर्म, अपने कर्म-युद्ध में। श्रीकृष्ण का यह कर्म संदेश सदियों से मानव पथ को आलोकित करता रहा है और इस नव सहस्राब्दी में भी करता रहेगा।
विलक्षण बात तो यह थी कि पुत्र के जन्म लेते ही खुल गए थे सभी बंधन माँ-बाप के। उनके आश्चर्य का ठिकाना न रहा जब आँधी, तूफान ने जेल के बंद किवाड़ों को भी खोल दिया था। वासुदेव की आँखें चमक उठी थीं।
आनन-फानन वासुदेव ने अपने लाडले को कपड़े में लिपटाया और छिपा दिया था टोकरी में। टोकरी को वासुदेव ने धरा सिर पर और ले चले गोकुल-यमुना पार। पर यमुना तो विकराल बनी थी, पूरे उफान पर थी। वासुदेन न डरे और न रुके, चल पड़े यमुना में।
पहले उनके घुटनों तक पानी आया, फिर कमर तक, फिर छाती तक और फिर सिर तक आ गया। पर वासुदेव के पैर नहीं थमे, बढ़ते गए मंजिल की ओर। यमुनाजी प्रभु के चरण छूने के लिए व्याकुल हो गईं। अंतर्यामी बाल-प्रभु यमुना के मन की बात समझ गए। उन्होंने अपने चरण-स्पर्श से यमुना की व्यथा को दूर किया। यमुना-मैया उतरने लगी।
वासुदेव ने नंदबाबा के घर जाकर अपने पुत्र को यशोदाजी के पास सुला दिया।
वासुदेव की आँखें अपलक निहार रही थीं अपने दुलारे को। आँसू रुक नहीं रहे थे, भिगो रहे थे दोनों के तन-मन को। मन में भय था वासुदेव के, न जाने कब देख पाएँगे अपने दुलारे को। देख भी पाएँगे कभी या नहीं। पर मन में कहीं अटूट भरोसा था अपने सखा नंद पर, इसीलिए अपने पुत्र रत्न को जल्दी से यशोदा की गोद में डाल वे उनकी नवजात कन्या लेकर वे कारागार में लौट गए।
यशोदा की गोद भर गई थी। ढोलक की थाप और सोहर के गीतों से गूँज उठा था घर-द्वार और ग्वालिनों के लिए राग-रंग उत्सव, उल्लास का दिन था वह। भूल गई थीं वे दूध बिलौना और छछिया बेचना। सभी के कदम बढ़ गए थे यशोदा के द्वार पर, जहाँ कान्हा, झूल रहे थे।
ग्वालिनों में यशोदा निहाल हो गई थी पुत्र पाकर। वह आज गर्वीली सी थी। होती भी क्यों नहीं? घर आँगन भर गया था उसका, मनचाही खुशियों से। बाबा नन्द की खुशियों का पारावार ही न था वे तो मात्र हँस-हँस कर सबसे मिल रहे थे। उनकी वीणा तो मानो मूक हो गई थी।
इसी कान्हा ने दूध पीते-पीते पूतना के प्राण पी लिए थे। माखन चुराते-चुराते अपने सखाओं का मन जीत लिया था। डरा दिया था इसने यशोदा मैया को अपने मुख में ब्रह्मांड दिखाकर। पेड़ों पर उछल-कूद मचाते, कर दिया था इसने कालीनाग का मर्दन और उसके फन पर नृत्य करते मुस्कुराते हुए, यमुना नदी से बाहर आ गए थे विजयी मुद्रा में।
इसकी बंसी की धुन सुनकर गौएँ और गोपियाँ अपनी सुध-बुध भूल जाती थीं। हो जाती थीं गोपियाँ इसके महारास के रस में सराबोर। ऐसा था यशोदा मैया का छोरा कन्हैया। यही नटखट, माखनचोर, बंसी बजैया, कान्हा मथुरा में आकर बन गया कृष्ण।
महाभारत युद्ध में यही कृष्ण बना धनुर्धर अर्जुन का सारथी। कुरुक्षेत्र में युद्ध का शंखनाद हो चुका था। रणभेरी गूँज उठी थी, परंतु यह क्या? महारथी अर्जुन के हाथ-पाँव शिथिल होने लगे। मुँह सूखने लगा। शरीर में कँपकपी होने लगी। आँखें आँसुओं से भर आईं, मन विषाद से। हाथ से गांडीव सरककर जमीन पर गिर पड़ा, क्योंकि पृथा-पुत्र के मस्तिष्क पर छा गया था मोह।
देखा था परंतप अर्जुन ने विपक्ष में खड़े अपने दादा, परदादा, आचार्यों, मामाओं, पुत्र-पौत्रों, मित्रों, स्वजनों, परिजनों और बंधुजनों को। सोचने लगे कि जिनके हाथों ने मुझे झुलाया, जिनकी गोद में खेलकर मैं बड़ा हुआ, जिनके आश्रम में रहकर मैंने विद्या पाई, जिन्होंने मुझे धनुष-बाण चलाना सिखाया क्या उन्हीं से युद्ध करूँ?
इन्हें मारने से तो बेहतर होगा कि मैं भीख माँगकर खाऊँ। इन सभी के खून से लथपथ, सना हुआ राज्य लेकर मैं क्या करूँगा। चले गए थे विषादग्रस्त पार्थ, कृष्ण की शरण में शिष्य भाव से। ऐसे में श्रीकृष्ण ने समझाया था यूँ उस किंकर्तव्यविमूढ़ पार्थ को।
हे पार्थ! जो जन्मता है वह मरता है। जो मरता है वह जन्मता है। यह है प्रकृति का अटूट नियम। मनुष्य जैसे पुराने वस्त्रों को छोड़कर कर लेता है नए वस्त्र धारण वैसे ही देही पुराने शरीर को छोड़कर धारण कर लेता है नए शरीर को। न तो यह आत्मा जन्म लेती है और न मरती है।
आत्मा को न शस्त्र काट सकते हैं, न अग्नि जला सकती है, न जल गिरा सकता है, न वायु सुखा सकती है। यह आत्मा अजन्मा, नित्य शाश्वत और सनातन है। जो आत्मा को मरने वाला समझता है, जो इसे मरा हुआ मानता है, वे दोनों ही नहीं जानते कि न तो आत्मा मरती है और न ही मारी जाती है, इसीलिए सुख-दुःख, लाभ-हानि, जय-पराजय को एक मानकर तुम युद्ध करो।
हे धनंजय! कर्म करने में ही तुम्हारा अधिकार है, उसके फलों में नहीं। तुम कर्मफल का कारण भी मत बनो। कर्म न करने में भी तुम्हारी आसक्ति नहीं होनी चाहिए। तुम योगस्थ होकर कर्म करो, क्योंकि सिद्धि-असिद्धि, हर्ष-विषाद में समभाव से रहना ही योग है। 'समत्वं योग उच्यते।' कर्मों की कुशलता ही योग है। 'योगः कर्मसु कौशलम्।'
इन्द्रियों को अंतर्मुखी कर, मन को संयमित और नियंत्रित कर, बुद्धि को स्थिर कर तुम 'स्थितप्रज्ञ' बनो। कर्म न करने से कर्म करना श्रेष्ठ है। तुम कर्मफल में आसक्त हुए बिना ही कर्म करो। कर्मों की गति गहन है।
कर्म संन्यास और कर्मयोग दोनों ही मुक्ति देने वाले हैं, परंतु कर्म संन्यास की अपेक्षा कर्मयोग श्रेष्ठ है। कर्मफल में आसक्ति को त्यागकर कर्मों को ब्रह्म में समर्पित करके कार्य करना श्रेयस्कर है, कर्म करते हुए कर्मफलों को त्यागने से ही मनुष्य त्यागी बनता है।
हे नरश्रेष्ठ अर्जुन! प्रत्येक वर्ण के अपने-अपने कर्म हैं। पराक्रम, तेज, धर्म, चतुराई, युद्ध से मुँह न मोड़ना, दान और ईश्वरभाव ये क्षत्रिय के स्वाभाविक कर्म हैं। हे कुरुश्रेष्ठ! यदि अहंकार का आश्रय लेकर तुम यह समझते हो कि युद्ध नहीं करोगे तो तुम्हारा निश्चय व्यर्थ है, क्योंकि तुम्हारा क्षत्रिय स्वभाव तुम्हें युद्ध में प्रवृत्त करके ही रहेगा।
हे कौन्तेय! तुम मोह के कारण युद्ध नहीं करना चाहते, परंतु तुम अपने स्वभावज कर्म के कारण युद्ध करोगे। यूँ भी स्वधर्म में मरना श्रेयस्कर है। 'स्वधर्में निधनं श्रेयः' इसलिए सब धर्मों को त्यागकर तुम केवल मेरी शरण में आ जाओ। 'मामेकं शरणं व्रज।'
हे धनुर्धर अर्जुन! जो शोक करने के योग्य नहीं है उन बान्धवों के लिए तुम शोक कर रहे हो। मोह से उत्पन्न हुए शोक को तुम त्याग दो। तुम युद्ध करो। 'ततस्पाद् युध्यस्व भारत।' कर्म के इस संदेश को पार्थ ने सुना था।
योगेश्वर श्रीकृष्ण के मुखारविन्द और वे प्रवृत्त हो गए थे अपने धर्म, अपने कर्म-युद्ध में। श्रीकृष्ण का यह कर्म संदेश सदियों से मानव पथ को आलोकित करता रहा है और इस नव सहस्राब्दी में भी करता रहेगा।
No comments:
Post a Comment