जय बिगमल देवा-देवा-जाखड़ कुल के सूरज करूं मैं नित सेवा ।
जाखड़ वंश उजागर, संतन हित कारी (प्रभु संतन)
दुष्ट विदारण दु:ख जन तारण, विप्रन सुखकारी ॥ 1 ॥
सत धर्म उजागर सब गुण सागर, मंदन पिता दानी ।
सती धर्म निभावण सब गुण पावन, माता सुल्तानी ॥ 2 ॥
सुन्दर पग शीश पग सोहे, भाल तिलक रूड़ो देवा-देवा ।
भाल विशाल तेज अति भारी, मुख पाना बिड़ो ॥ 3 ॥
कानन कुन्डल झिल मिल ज्योति, नेण नेह भर्यो ।
गोधन कारन दुष्ट विदारन, जद रण कोप करयो ॥ 4 ॥
अंग अंगरखी उज्जवल धोती, मोतीन माल गले ।
कटि तलवार हाथ ले सेलो, अरि दल दलन चले ॥ 5 ॥
रतन जडित काठी, सजी घोड़ी, आभाबीज जिसी ।
हो असवार जगत के कारनै, निस दिन कमर कसी ॥ 6 ॥
जब-जब भीड़ पड़ी दुनिया में , तब-तब सहाय करी ।
अनन्त बार साचो दे परचो, बहु विध पीड़ हरी ॥ 7 ॥
सम्वत दोय सहस के माही, तीस चार गिणियो ।
मास आसोज तेरस उजली, मन्दिर रीड़ी बणियो ॥ 8 ॥
दूजी धाम बिग्गा में सोहे, धड़ देवल साची ।
मास आसोज सुदी तेरस को, मेला रंग राची ॥ 9 ॥
या आरती बिगमल देवा की, जो जन नित गावे ।
सुख सम्पति मोहन सब पावे, संकट हट जावै ॥ 10 ॥
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