योग का वरणन .....................
गुरु शिस्यो को इस प्रकार ज्ञान का उपदेश करे.............
1. में ही ब्रह्म हूँ!
२. वह तू है!
३. तू ब्रह्म है!
4. आत्मा ही ब्रह्म है!
५. जगत ईश्वर से अधिष्ठित है!
६. में ही प्राण हु!
७. आत्मा ही ज्ञान है!
८. प्रज्ञान आत्मा , अर्थात जो यंहा है, वो में ही हु!
९.विरत, वह पर है!
१०. वाही तुम्हारी आत्मा अंतरयामी और अमृत है!
११. वह एक ही पुरुष और आदि में ही हूँ!
१२. में ही प्राण हूँ!
१३. वह सब से पर, सबके आनंद का ज्ञाता, गुरु, स्वयं का आनंद का लक्ष्ण में ही हूँ!
१४. सर्व भूतो के ह्रदय में मई ही स्थित हूँ!
१५. तत्व और पृथ्वी का प्राण में ही हूँ!
16. वायु और आकाश का प्राण में ही हूँ!
17. सर्वात्मक अदित्वीय में ही हूँ!
१८. यह सब त्रिगुण का प्राण में ही हूँ!
१९. यह सब कुछ ब्रह्म रूप ही है!
20. में सभी से मुक्त स्वरुप हूँ!
21. जो यह है वो में ही हूँ, और हंस भी में ही हूँ!
22. इस प्रकार गुरु शिष्य को ज्ञान दे की मुज से भिन्न जगत में कोई सत्ता नहीं है!
23. में ही ओमकार हूँ!
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