"मेरा गाँव-मेरा शहर"...एक सच
मेरे गाँव में घर के आँगन में आज भी मोर आते है,
शहर में मुझे चिडिया तक भी देखने को नही मिलती..
मेरे गाँव में लोगो के बीच आज भी वो ही भाईचारा है,
पर मेरे शहर में तो भाई की भाई से ही नही बनती..
मेरे गाँव में सुख दुःख में सब साथ खड़े होते हैं,
शहर में अपनी परछाई भी अपने साथ नही दिखती..
मेरे गाँव में आज भी पक्की सड़क नही है,
शहर में सड़के तो है पर मंजिल नही मिलती..
मेरे गाँव में आज भी सब नीम के पेड़ तले बतियाते है,
शहर में तो लोगो को फ़ोन से ही फुर्सत नही मिलती..
मेरे गाँव में बच्चे आज भी माँ के आँचल में पलते है,
शहर में अब आँचल वाली माँ ही देखने को नही मिलती..
मेरे गाँव में सावन के आज भी झूले पड़ते है,
शहर के पार्क में भी झूले झूलने की बारी नही मिलती..
मेरे गाँव में आज भी हर त्यौहार के अपने गीत है,
शहर के बेसुरे संगीत में सुरों की मिठास नहीं मिलती..
मेरे गाँव में भले कुछ नही है फिर भी लोग खुश है,
शहर में सब कुछ है फिर भी चेहरे पर खुशी नही दिखती..
मेरे गाँव में सोहार्द पूर्ण अमन है सुख है चैन है,
शहर में हर मुस्कराहट के पीछे भीगे हुए नैन है..
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