Saturday 5 April 2014

सभी स्नेही मानसप्रेमी साधकजनों को हमारी स्नेहमयी राम राम

सभी स्नेही मानसप्रेमी साधकजनों को हमारी स्नेहमयी राम राम |
जय सियाराम जय सियाराम जय सियाराम जय जय सियाराम
श्रीरामचरितमानस - बालकाण्ड 
मंगलाचरण सोरठा संख्या 5 से आगे ............
चौपाई :
बंदऊँ गुरु पद पदुम परागा सुरुचि सुबास सरस अनुरागा
अमिअ मूरिमय चूरन चारू समन सकल भव रुज परिवारू  
सुकृति संभु तन बिमल बिभूती मंजुल मंगल मोद प्रसूती
जन मन मंजु मुकुर मल हरनी किएँ तिलक गुन गन बस करनी
श्री गुर पद नख मनि गन जोती सुमिरत दिब्य दृष्टि हियँ होती
दलन मोह तम सो सप्रकासू बड़े भाग उर आवइ जासू
उघरहिं बिमल बिलोचन ही के मिटहिं दोष दुख भव रजनी के
सूझहिं राम चरित मनि मानिक गुपुत प्रगट जहँ जो जेहि खानिक
भावार्थ:-मैं गुरु महाराज के चरण कमलों की रज की वन्दना करता हूँ, जो सुरुचि (सुंदर स्वाद), सुगंध तथा अनुराग रूपी रस से पूर्ण है वह अमर मूल (संजीवनी जड़ी) का सुंदर चूर्ण है, जो सम्पूर्ण भव रोगों के परिवार को नाश करने वाला है वह रज सुकृति (पुण्यवान्पुरुष) रूपी शिवजी के शरीर पर सुशोभित निर्मल विभूति है और सुंदर कल्याण और आनन्द की जननी है, भक्त के मन रूपी सुंदर दर्पण के मैल को दूर करने वाली और तिलक करने से गुणों के समूह को वश में करने वाली है श्री गुरु महाराज के चरण-नखों की ज्योति मणियों के प्रकाश के समान है, जिसके स्मरण करते ही हृदय में दिव्य दृष्टि उत्पन्न हो जाती है वह प्रकाश अज्ञान रूपी अन्धकार का नाश करने वाला है, वह जिसके हृदय में जाता है, उसके बड़े भाग्य हैं उसके हृदय में आते ही हृदय के निर्मल नेत्र खुल जाते हैं और संसार रूपी रात्रि के दोष-दुःख मिट जाते हैं एवं श्री रामचरित्र रूपी मणि और माणिक्य, गुप्त और प्रकट जहाँ जो जिस खान में है, सब दिखाई पड़ने लगते हैं-
दोहा :
जथा सुअंजन अंजि दृग साधक सिद्ध सुजान
कौतुक देखत सैल बन भूतल भूरि निधान 1
भावार्थ:-जैसे सिद्धांजन को नेत्रों में लगाकर साधक, सिद्ध और सुजान पर्वतों, वनों और पृथ्वी के अंदर कौतुक से ही बहुत सी खानें देखते हैं 1
शेष अगली पोस्ट में...... 
गोस्वामी तुलसीदासरचित श्रीरामचरितमानस, बालकाण्ड, दोहा संख्या 01, टीकाकार श्रद्धेय भाई श्रीहनुमान प्रसाद पोद्दार, पुस्तक कोड-81, गीताप्रेस गोरखपुर


सभी स्नेही मानसप्रेमी साधकजनों  को हमारी स्नेहमयी राम राम |

जय सियाराम जय सियाराम जय सियाराम जय जय सियाराम 

श्रीरामचरितमानस - बालकाण्ड 
मंगलाचरण                                                                                      सोरठा संख्या 5 से आगे ............

चौपाई :    

     
 
बंदऊँ गुरु पद पदुम परागा । सुरुचि सुबास सरस अनुरागा ॥
अमिअ मूरिमय चूरन चारू । समन सकल भव रुज परिवारू ॥ 
सुकृति संभु तन बिमल बिभूती । मंजुल मंगल मोद प्रसूती ॥
जन मन मंजु मुकुर मल हरनी । किएँ तिलक गुन गन बस करनी ॥
श्री गुर पद नख मनि गन जोती । सुमिरत दिब्य दृष्टि हियँ होती ॥
दलन मोह तम सो सप्रकासू । बड़े भाग उर आवइ जासू ॥
उघरहिं बिमल बिलोचन ही के । मिटहिं दोष दुख भव रजनी के ॥
सूझहिं राम चरित मनि मानिक । गुपुत प्रगट जहँ जो जेहि खानिक ॥

भावार्थ:-मैं गुरु महाराज के चरण कमलों की रज की वन्दना करता हूँ, जो सुरुचि (सुंदर स्वाद), सुगंध तथा अनुराग रूपी रस से पूर्ण है । वह अमर मूल (संजीवनी जड़ी) का सुंदर चूर्ण है, जो सम्पूर्ण भव रोगों के परिवार को नाश करने वाला है ॥ वह रज सुकृति (पुण्यवान्‌ पुरुष) रूपी शिवजी के शरीर पर सुशोभित निर्मल विभूति है और सुंदर कल्याण और आनन्द की जननी है, भक्त के मन रूपी सुंदर दर्पण के मैल को दूर करने वाली और तिलक करने से गुणों के समूह को वश में करने वाली है ॥ श्री गुरु महाराज के चरण-नखों की ज्योति मणियों के प्रकाश के समान है, जिसके स्मरण करते ही हृदय में दिव्य दृष्टि उत्पन्न हो जाती है । वह प्रकाश अज्ञान रूपी अन्धकार का नाश करने वाला है, वह जिसके हृदय में आ जाता है, उसके बड़े भाग्य हैं ॥ उसके हृदय में आते ही हृदय के निर्मल नेत्र खुल जाते हैं और संसार रूपी रात्रि के दोष-दुःख मिट जाते हैं एवं श्री रामचरित्र रूपी मणि और माणिक्य, गुप्त और प्रकट जहाँ जो जिस खान में है, सब दिखाई पड़ने लगते हैं- ॥

दोहा : 

जथा सुअंजन अंजि दृग साधक सिद्ध सुजान ।
कौतुक देखत सैल बन भूतल भूरि निधान ॥1॥

भावार्थ:-जैसे सिद्धांजन को नेत्रों में लगाकर साधक, सिद्ध और सुजान पर्वतों, वनों और पृथ्वी के अंदर कौतुक से ही बहुत सी खानें देखते हैं ॥1॥  

शेष अगली पोस्ट में......                                                               
गोस्वामी तुलसीदासरचित श्रीरामचरितमानस, बालकाण्ड,  दोहा संख्या 01, टीकाकार श्रद्धेय भाई श्रीहनुमान प्रसाद पोद्दार, पुस्तक कोड-81,  गीताप्रेस गोरखपुर

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