Friday 18 April 2014

वेद-स्वाध्याय

!!!---: वेद-स्वाध्याय :---!!!
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तप से अजेयता
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"तपसा ये अनाधृष्यास्तपसा ये स्वर्ययुः।
तपो ये चक्रिरे महस्ताँश्चिदेवापि गच्छतात्।।"
(
ऋग्वेदः--10.154.2
ऋषिकाः---यमी।
देवताः---भाववृत्तम्।
छन्दः--निचृदनुष्टुप्।
स्वरः--गान्धारः।
अन्वयः---(हे मर्त्य) ये तपसा अनाधृष्याः ये तपसा स्वः ययुः, ये महः तपः, चक्रिरे, तान् चित् एव अपि गच्छतात्।
शब्दार्थः---(1.) (ये) जो, (तपसा) तप के द्वारा, (अनाधृष्याः) धर्षण के योग्य नहीं बनते हैं, तपस्या के कारण जो वासनाओं से आक्रान्त नहीं होते हैं, (ये) जो, (तपसा) तप के द्वारा, (स्वः ययुः) प्रकाशमय सुखमय लोक को प्राप्त करते हैं, जिन्हें तप सुखी ज्ञानदीप्त बनाता है। (ये) जो, (महः तपः) महान् तप को, (चक्रिरे) करते हैं।
(2.) यह हमारे समीप आया हुआ बालक (चित्) निष्चय से, (तान् एव) उन लोगों के ही, (अपि गच्छतात्) समीप प्राप्त होने वाला हो, अर्थात् ये भी तप के द्वारा वासनाओं को कुचलने वाला बने। तप के कारण प्रकाशमय लोक को प्राप्त करें, दीप्त बुद्धि वाला हो, खूब ही तपस्वी हो।
भावार्थःः----हम अपनी सन्तानों को तपस्वी बनायें। जिससे वे वासनामय जीवन से दूर रहते हुए प्रकाशमय जीवन वाले बनें।
व्याख्याः----जीवन में सफलता का रहस्य क्या है ? तप और साधना। अपने लक्ष्य को निर्धारित करके उसमें तल्लीनता पूर्वक निरन्तर लगे रहना साधना है, तप है। इसमें प्रथम कर्त्तव्य यह है कि मनुष्य सबसे पहले अपना लक्ष्य निष्चित करें और उसकी प्राप्ति के लिए दृढ संकल्प करे। यही व्रत है, अनुष्ठान है। व्रत या अनुष्ठान को विधिपूर्वक करना ही साधना है, तप है। तप का वास्तविक रूप साधना है। लक्ष्य की प्राप्ति के लिए दृढ निश्चय एवं कटिबद्धता आवश्यक है। इसी के कारण मनुष्य अपने लक्ष्य की ओर बढता है। यदि इसमें निरन्तरता जाए तो वह लक्ष्य को प्राप्त भी कर लेता है। सच्चे अभ्यास से तपोनिष्ठ व्यक्ति अजेय और अधर्षणीय हो जाता है, फिर उसे कोई सताता नहीं। तो बाहर के शत्रु उसके अन्दर के शत्रु। क्योंकि दोनों धराशायी हो जाते हैं। ऐसा व्यक्ति सभी प्रकार की सिद्धियाँ प्राप्त कर लेता है। उसे अपने प्रत्येक कार्य में सफलता मिलने लग जाती है। असफलता उससे कोसों दूर भाग जाती है। इस मन्त्र में तप से सभी प्रकार की सिद्धियाँ प्राप्त होती है, इस बारे में बताया गया है।


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