एक दिन श्रीराधा जी एकांत में किसी माहं भाव में निमग्न बैठी थी एक श्री कृष्ण प्रेमाभिलाषिणी सखी ने आकर बड़ी ही नम्रता से उनसे प्रियतम श्रीकृष्ण या उनका विशुद्ध अनन्य प्रेम प्राप्त करने का सर्वश्रेष्ठ साधन पूँछा -
सखी बोली - हे राधा प्यारी! कृष्ण का विशुद्ध अनन्य प्रेम प्राप्त करने का सर्व श्रेष्ठ साधन क्या है ?
बस श्रीकृष्ण प्रेम के साधन का नाम सुनते ही श्री राधिकाजी के नेत्रो से आंसुओ की धार बह चली, और वे गदगद वाणी से रोती हुई बोली -
"अरी सखी ! मेरे तन, मन, प्रान -
धन, जन, कुल, ग्रह - सब ही वे है सील, मान, अभिमान|
धन, जन, कुल, ग्रह - सब ही वे है सील, मान, अभिमान|
आँसू सलिल छांडी नहिं कछु धन है राधा के पास|
जाके बिनिमय मिलै प्रेमधन नीलकान्तमनि खास |
जानी लेउ सजनी ! निसचै यह परम सार कौ सार|
स्याम प्रेम कौ मोल अमोलक सुचि अँसुवन की धार|
स्याम प्रेम कौ मोल अमोलक सुचि अँसुवन की धार|
वे बोली - अरी सखी ! मै क्या साधन बताऊँ मेरे पास तो कुछ और है ही नहीं मेरे तन, मन,प्राण, धन, जन, कुल, घर, शील, मान, अभिमान- सभी कुछ एक मात्र वे श्यामसुन्दर ही है.इस राधा के पास अश्रुजल को छोड़कर और कोई धन है ही नहीं जिनके बदले उन प्रेमधन स्वयं नीलकान्तमणि को प्राप्त किया जाए.
सजनी ! तुम यह निश्चित परम सार का सार समझो -अमूल्य श्याम प्रेम का मूल्य केवल "पवित्र आँसुओ की धारा" ही है.सब कुछ उन्ही को समर्पण कर, सबकुछ उन्ही को समझकर, उन्ही के प्रेम से, उन्ही के लिए, जो निरंतर प्रेमाश्रुओं की धारा बहती है, वह पवित्र अश्रुजल ही उनके प्रेम को प्राप्त करने का एकमात्र उपाय है बस यही उनके 'साधन का स्वरुप' है.
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