''आत्मा को परमात्मा से जोड़ने का रसायन''
प्रेम आत्मा का भोजन है, प्रेम परमात्मा की ऊर्जा है जिससे प्रकृति का सारा सृजन होता है। आध्यात्म जगत में प्रेम से ज्यादा महत्त्वपूर्ण कोई शब्द नहीं है। यही वह रसायन है जो आत्मा को परमात्मा से जोड़ देता है। जब आप प्रेम में उतर जाते हो तो प्रेम का प्रत्युत्तर आपने आप आना शुरू हो जाता है। आप सद्गुरु की आँखों में प्रेम से झांकते हो तो सद्गुरु की प्रेम ऊर्जा आपको ऐसे लपेटने लगती है कि आप मंत्रमुग्ध होकर उसी के हो जाते हो। सद्गुरु को पकड़ो। पकड़ने का अर्थ है – सबसे पहले वहां साष्टांग हो जाओ, झुक जाओ यानि अहंकार के विसर्जन का, प्रेम का, प्रीती का अभ्यास सद्गुरु के चरणों से शुरू करो। एक बात और है – प्रेम करना नहीं होता, प्रेम तो स्वयं हो जाता है। लेकिन इस प्रेम के होने में बुद्धि सबसे बड़ी बाधा बन जाती है। बुद्धि सोच विचार करती है। तर्क वितर्क करती है, वह खुले ह्रदय से अनुभव नहीं करने देती है। बुद्धि बंधन है, उसी से मुक्त होना है और उपलब्ध रहना है उन प्रेम के क्षणों में। प्रेम कि भूल-भुलैया का जरा अनुभव तो करो, लेकिन बुद्धि से नहीं, ह्रदय खोलकर प्रेम का दिया बनो। प्रेम का अर्थ होता है – दूसरों को इतना अपना बना लेना कि कुछ छिपाने को बचे ही नहीं। एक कसौटी दे रहा हूँ आपको, जब आपको लगने लगे कि उससे छिपाने को कुछ भी नहीं रहा तब समझना कि आपको सच्चे अर्थों में प्रेम हो गया है।
सद्गुरु ही एकमात्र व्यक्तित्व है जो निःस्वार्थ प्रेम करता है। उसे आपसे कुछ पाना नहीं है। उसे तो अपना सब कुछ आपके ऊपर लुटाना है। उसके प्रति प्रेम करने में कठिनाई का अनुभव नहीं होना चाहिए। वह तो खूँटी है। उसी खूँटी से अभ्यास करो। ऋषियों ने कहा है, प्रकृति से प्रेम करो। फिर धीरे-धीरे मनुष्य पर आओ। मनुष्य से आकर आप सीधे परमात्मा तक पहुंचोगे। ऋषियों ने पहाड़ों को पूजा, नदियों को पूजा, वृक्षों को पूजा, चाँद-तारों को पूजा। किसलिए? उनहोंने सन्देश दिया कि सारी पृथ्वी से प्रेम करो। विराट अस्तित्व ही परमात्मा है। सबके प्रति प्रेम से इतना भर जाओ कि आपकी लय, आपका संगीत, आपका छंद उस परमात्मा से जुड़ जाये। जो-जो शरीर में है वह सब ब्रम्हांड में है। सारे धर्म इसी बात का विज्ञान हैं और कुछ नहीं। प्रेम की एक ही साधना है, एक ही संकल्पना है जिसके साध लेने पर आध्यात्म की सारी साधनाएँ प्रकट हो जायेंगी।
“मसि कागद छुओ नहीं, कलम गह्यो नहि हाथ।” कबीर ने हाथ से कलम भी नहीं पकड़ी, लेकिन कबीर के ऊपर सारी दुनिया में शोध ग्रन्थ लिखे जा रहे हैं। उनहोंने कुछ अद्भुत चीज पढ़ी होगी जिसके कारण सारी दुनिया उन पर शोध ग्रन्थ लिख रही है। “पोथी पढि-पढि जग मुआ पंडित भया न कोय, ढाई अक्षर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय।” सच तो यह है कि उनहोंने प्रेम का ढाई अक्षर पढ़ लिया था। यह उसी का जादू है। कोई कहता है प्रेम का अर्थ वही होता है जो वासना के वशीभूत होकर हम सब एक दूसरे के प्रति आकर्षित होते हैं। तरह-तरह कि भ्रांतियां हैं। प्रेम का सच्चा स्वरुप आपके ह्रदय में उतरे, इसलिए चाहता हूँ कि हर धरातल पर आपका चित्त इतना निर्मल हो जाये कि प्रेम का संगीत झरने लगे। इसी को प्रेम कहते हैं।
प्रेम के तीन तल होते हैं। तीन अर्थों में मैं आपको समझाना चाहता हूँ। पहला तल – शरीर का तल है जहाँ आप गिरते हो। वासना के वशीभूत होकर परस्पर प्रेम करना वास्तव में प्रेम है ही नहीं। वह तो स्वार्थ है, छलावा है। एक-दूसरे की आवश्यकता की पूर्ति मात्र है। दूसरा तल है – मन का तल, जब बात शरीर से ऊपर उठकर मन तक आ जाती है। मन से चाहने लगते हो। तीसरा तल है – आत्मा का तल। सूक्ष्मतम अस्तित्व आत्मा, जब वह प्रेम एक दूसरे की आत्मा से जुड़ जाता है यानि एक दूसरे की आत्मा में बस जाते हो तब आप दो नहीं रहते एक हो जाते हो। आत्मसात हो जाते हो परस्पर। ऐसा निःस्वार्थ प्रेम वासना रहित होता है। तो मेरा आपसे निवेदन है कि आप सब लोग ऐसा प्रेम करो, ऐसा प्रेम ही परमात्मा से आपका साक्षात्कार करा देगा।
सद्गुरु ही एकमात्र व्यक्तित्व है जो निःस्वार्थ प्रेम करता है। उसे आपसे कुछ पाना नहीं है। उसे तो अपना सब कुछ आपके ऊपर लुटाना है। उसके प्रति प्रेम करने में कठिनाई का अनुभव नहीं होना चाहिए। वह तो खूँटी है। उसी खूँटी से अभ्यास करो। ऋषियों ने कहा है, प्रकृति से प्रेम करो। फिर धीरे-धीरे मनुष्य पर आओ। मनुष्य से आकर आप सीधे परमात्मा तक पहुंचोगे। ऋषियों ने पहाड़ों को पूजा, नदियों को पूजा, वृक्षों को पूजा, चाँद-तारों को पूजा। किसलिए? उनहोंने सन्देश दिया कि सारी पृथ्वी से प्रेम करो। विराट अस्तित्व ही परमात्मा है। सबके प्रति प्रेम से इतना भर जाओ कि आपकी लय, आपका संगीत, आपका छंद उस परमात्मा से जुड़ जाये। जो-जो शरीर में है वह सब ब्रम्हांड में है। सारे धर्म इसी बात का विज्ञान हैं और कुछ नहीं। प्रेम की एक ही साधना है, एक ही संकल्पना है जिसके साध लेने पर आध्यात्म की सारी साधनाएँ प्रकट हो जायेंगी।
“मसि कागद छुओ नहीं, कलम गह्यो नहि हाथ।” कबीर ने हाथ से कलम भी नहीं पकड़ी, लेकिन कबीर के ऊपर सारी दुनिया में शोध ग्रन्थ लिखे जा रहे हैं। उनहोंने कुछ अद्भुत चीज पढ़ी होगी जिसके कारण सारी दुनिया उन पर शोध ग्रन्थ लिख रही है। “पोथी पढि-पढि जग मुआ पंडित भया न कोय, ढाई अक्षर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय।” सच तो यह है कि उनहोंने प्रेम का ढाई अक्षर पढ़ लिया था। यह उसी का जादू है। कोई कहता है प्रेम का अर्थ वही होता है जो वासना के वशीभूत होकर हम सब एक दूसरे के प्रति आकर्षित होते हैं। तरह-तरह कि भ्रांतियां हैं। प्रेम का सच्चा स्वरुप आपके ह्रदय में उतरे, इसलिए चाहता हूँ कि हर धरातल पर आपका चित्त इतना निर्मल हो जाये कि प्रेम का संगीत झरने लगे। इसी को प्रेम कहते हैं।
प्रेम के तीन तल होते हैं। तीन अर्थों में मैं आपको समझाना चाहता हूँ। पहला तल – शरीर का तल है जहाँ आप गिरते हो। वासना के वशीभूत होकर परस्पर प्रेम करना वास्तव में प्रेम है ही नहीं। वह तो स्वार्थ है, छलावा है। एक-दूसरे की आवश्यकता की पूर्ति मात्र है। दूसरा तल है – मन का तल, जब बात शरीर से ऊपर उठकर मन तक आ जाती है। मन से चाहने लगते हो। तीसरा तल है – आत्मा का तल। सूक्ष्मतम अस्तित्व आत्मा, जब वह प्रेम एक दूसरे की आत्मा से जुड़ जाता है यानि एक दूसरे की आत्मा में बस जाते हो तब आप दो नहीं रहते एक हो जाते हो। आत्मसात हो जाते हो परस्पर। ऐसा निःस्वार्थ प्रेम वासना रहित होता है। तो मेरा आपसे निवेदन है कि आप सब लोग ऐसा प्रेम करो, ऐसा प्रेम ही परमात्मा से आपका साक्षात्कार करा देगा।
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