Friday, 18 April 2014

दौलतवाला होने पर ही ऊँचा आसन मिलता न जहाँ I हर एक ग़रीब आदमी से नफरत अमीर करता न जहाँ


दौलतवाला होने पर ही ऊँचा आसन मिलता जहाँ I
हर एक ग़रीब आदमी से नफरत अमीर करता जहाँ II
रहता है सच्चा न्याय जहाँ गुण जहाँ , बल जहाँ नेम जहाँ I
हे विश्वम्भर , बस वहीँ रहो हो अखिल विश्व का प्रेम जहाँ II
परधन मिट्टी के सदृश जहाँ परनारी मात सामान जहाँ I
भगवान विराजें उसी जगह हो नित्य बड़ों का मान जहाँ II
संतोष जहाँ, विश्वास जहाँ, शुचि निष्ठा जहाँ प्रितिति जहाँ I 
प्रभु वहीँ रहें है निति जहाँ प्रभु वहीँ रहें है प्रीति जहाँ II
जिस जनकी आस तुम्हीं तुमहो,जिस जनकी टेक तुम्हीं तुम हो I 
उसकी आँखों में वास करो, जिस के बस एक तुम्हीं तुम हो II 
इस प्रकार कहते हुए , पुलकि उठे मुनिनाथ I 
हृदय लगाया राम को बढ़ा प्रेम से हाथ II 
कुछ क्षण के उपरांत फिर-बोले मुनि धर धीर I 
"
अब कहता हूँ आपसे उचित ठांव रघुवीर II 
सर्वग्य राम बनकर अजान , जब धाम पूछने आए थे I 
तो मैंने भी कविता द्वारा बहुतेर घर दिखलाये थे II 
अब सुनो निकट है चित्रकूट , कुछ शोक द्वन्द्व त्रास वहां I 
है जगन्निवास, उचित हो तो - करिए कुछ काल निवास वहां II 
चित्रकूट में बन गया - सुंदर पर्ण निकेत I 
ठहर गए रघुवंशमणि - सीता लषण समेत II



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