Tuesday, 22 April 2014

सेवा और सत्संग की आवश्यकता

सेवा और सत्संग की आवश्यकता
लखनऊ के एक कायस्थ घर की बात है।लड़की वैषणवोंके घर की और शुद्ध आचरणोंवाली थी,पर पति का खाना-पीना सब खराब था।महाराज सुनकर आश्चर्य आये,ऐसी बात मैंने सुनी शरणानन्दजी महाराज से!वह लड़की आज्ञा पालन करती,मांस बनाकर देती।आप भोजन करती तो स्नान करके दूसरे वस्त्र पहनती और अपनी रोटी अलग बनाकर खाया करती।कितनी तकलीफ होती,बताओ !ऐसा गन्दा काम भी कर देना और अपनी पवित्रता भी पूरी रखना! एक बार पति बीमार हो गया उसने खूब तत्परता से रातों जगकर पति की सेवा की पति ठीक हो गया तो उसने कहा कि तुम मेरे से एक बात माँग लो उसने कहा कि आप सिगरेट छोड़ दो इस बात का पति पर इतना असर पड़ा कि उसने मांस-मदिरा सब छोड़ दिया क्योंकि इतनी सेवा करके भी अन्त में उसने एक छोटी सी बात सिगरेट छोड़ने की माँगी। अत: माताओं! बहनों! अपनी माँग बहुत कम रखनी है और सेवा करनी है। परन्तु पति के कहने से सत्संग-भजन का त्याग नहीं करना है;क्योंकि इस बात को मानने से उसको नरक होगा।अत: पति,माता-पिता आदि को पाप से बचाने के लिय सत्संग करो।अपना जीवन शुद्ध,निर्मल और मर्यादित हो,फिर कोई डर नहीं।
मौका मत चूकने दो और खूब उत्साहपूर्वक सत्संग,भजन ध्यान में लग जाओ।बड़ो की सेवा करो ।उनकी आज्ञा में रहो। सत्संग के लिये उनके चरणोंमें गिर करके,रो करके आज्ञा माँग लो कि मेरे को यह छुट्टी दो। आप जो कहो,वही मैं करूँगी,परन्तु यह एक छुट्टी चाहती हूँ।इतना हृदय का कड़ा कौन होगा,जो सेवा करनेवालेकी एक इतनी-सी बात भी नहीं मानेगा।
-सत्संग का प्रसाद पुस्तक से


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