ज़िंदगी में सफलता व तरक्की की आस रखने वालों के लिए संत कबीर द्वारा उजागर कई जीवन उपयोगी सूत्र अनमोल व कारगर माने जाते हैं। धर्म व साहित्य क्षेत्र में संत कबीरदास विलक्षण भक्तिकालीन कवि के रूप में याद किए जाते हैं। संत कबीर ने तत्कालीन समाज में फैले धार्मिक पाखण्ड व आडंबरों का सटीक, सरल, सीधी, खरी भाषा व बोलों के जरिए न केवल विरोध किया, बल्कि उनमें छुपे धर्म अध्यात्म, जीवन दर्शन, ज्ञान, भक्ति व कर्म के संदेशों से हर धर्म या जाति के इंसान को मानवीय धर्म, भावनाओं और संवेदनाओं के साथ जीवन जीने को भी प्रेरित किया।
संत कबीर से जुड़ी एक विलक्षण बात यह भी है कि वह निरक्षर थे, इसके बावजूद उनके द्वारा उजागर अद्भुत जीवन दर्शन ने समाज को शांत, सुखी व सफल जीवन के सूत्र बताए। यही नहीं, उनके सरल, सज्जन व सहज स्वभाव के कारण वह संत भी पुकारे गए। माना जाता है कि उन्होंने संवत 1575 में 119 साल की अवस्था में देहत्याग किया। खासतौर पर एक ही ईश्वरीय सत्ता में विश्वास करने की उनकी सीख ने हिन्दू-मुस्लिम धर्म भेद को मिटाने में भी अहम भूमिका निभाई। समाज सुधारक व युगपुरुष के रूप में संत कबीरदासजी की कहीं बातें आज भी सटीक व प्रासंगिक हैं।
घर-गृहस्थी शांत व सुखी हो तो जीवन भी स्थिर, संतुलित व सफलताओं से भरा होता है। शास्त्रों में भी धर्म पालन के नजरिए से गृहस्थी को अहम पड़ाव माना गया है, जो गृहस्थ धर्म के रूप में हर इंसान को संयम, अनुशासन व दायित्वों द्वारा चरित्र व आचरण की पवित्रता के प्रति संकल्पित रखता है।
संत कबीर के यहां बताए जा रहे दोहे में कही एक सीधी बात न केवल धर्मशास्त्रों में सुखी, शांत व संपन्न रखने के लिए जरूरी इंद्रिय संयम व गृहस्थ धर्म के निष्ठा से पालन के अहम सूत्र ही नहीं सिखाती, बल्कि इसे अनदेखा करने पर चरित्रहीनता से होने वाले बुरे नतीजों को भी उजागर करती है।
लिखा गया है कि -
परनारी राता फिरैं, चोरी बिढ़िता खाहिं।
दिवस चारि सरसा रहै, अंति समूला जाहिं॥
सरल अर्थ यही है कि जो पराई स्त्री का संग करे या गलत कामों से धन कमाते हैं, वह कुछ दिन तो सुख-चैन से गुजार सकते हैं, किंतु आखिरकार उनके शारीरिक, मानसिक व वैचारिक दोष से किए गए ऐसे बुरे काम दु:ख, रोग या कलह पैदा कर स्वयं के साथ घर-परिवार की बर्बादी व बिखराव का कारण बनते हैं।
संत कबीर का दर्शन यही है कि बेहतर संस्कार, जीवन मूल्यों को पीढ़ी-दर-पीढ़ी कायम रखना चाहते हैं तो इच्छाओं व मन पर काबू रख चरित्र व आचरण की पवित्रता के प्रति हमेशा सजग रहना जरूरी है।
जीवन में तरक्की और सफलता की डगर पर आगे बढ़ते रहने के लिए अच्छे-बुरे का फ़र्क समझने पर ही सारे लक्ष्यों को आसान बनाना और सुखद नतीजे पाना संभव है। खासतौर पर आज के प्रतियोगी और रफ्तारभरे माहौल में आगे बढऩे के लिए, जबकि स्वार्थ या द्वेषता जल्द मन पर हावी हो जाती है, में सज्जन-दुर्जन के बीच फ़र्क जान तालमेल न बैठा पाना पिछड़ने या नुकसान का कारण बन सकता है। इसके अलावा संगति भी उत्कर्ष या पतन का कारण बन जाती है।
संत कबीर का यह दोहा संतोष, विवेक व बुद्धि के सदुपयोग से अच्छे-बुरे की पहचान कर व्यावहारिक जीवन को साधने का गहरा व सटीक संदेश देता है-
आंखों देखा घी भला, न मुख मेला तेल।
साधु से झगड़ा भला, ना साकट सों मेल।।
इसमें सीख यही है कि जीवन में साधु यानी सज्जन स्वभाव के व्यक्ति से बिगाड़ से भी ज्यादा दुष्ट, दुर्जन या धूर्त व्यक्ति का संग दु:ख, कष्ट व हानि का बड़ा कारण बन सकता है, क्योंकि सज्जन व सद्गुणी कटुता या विवाद होने पर भी क्षमा, प्रेम जैसे धर्म भावों को ऊपर रख अच्छे विचारों के साथ अहित या हानि की मंशा से दूर रहता है। यहां तक कि वह बुरे वक्त में भी सहयोगी व साथ देकर सुख दे सकता है। वहीं, दुर्जन इंसान का संग तो हमेशा अपयश का कारण ही नहीं बनता, बल्कि वह स्वयं भी लालसा, स्वार्थ, ईर्ष्या जैसे बुरे भावों से ग्रसित होने से किसी भी वक्त छल, कपट से नुकसान पहुंचाने में चूकता नहीं।
शांत, सुखी, संपन्न व सफल जीवन का एक अहम सूत्र है- वक्त की कद्र करना यानी जीवन से जुड़े अहम लक्ष्यों को बिना वक्त गंवाए सही सोच, योजना व चेष्टा के साथ पाते चले जाना। शास्त्रों में भी मन, वचन और कर्म से किसी भी तरह के आलस्य दरिद्रता माना गया है, जो असफलता व अनचाहे दु:ख का कारण बनती है।
आलसीपन या कर्महीनता में डूबे व्यक्ति को समय का मोल समझाने व जीवन को सफल बनाने के लिए संत कबीरदास ने बहुत ही सीधी नसीहत देकर चेताया है। लिखा गया है कि-
पाव पलक की सुधि नहीं, करै काल का साज।
काल अचानक मारसी, ज्यों तीतर को बाज॥
भाव यही है कि जीवन अनिश्चित है। इसमें पल भर में क्या हो जाए, कुछ कहा नहीं जा सकता है, इसलिए किसी भी काम को टालने या अगले दिन करने की सोच या आदत बड़े नुकसान या पछतावे का कारण बन सकती है। क्योंकि मृत्यु भी अटल सत्य है, जो सांसों को अचानक वैसे ही थाम देती है, जैसे बाज, तीतर पर अचानक वार कर उसे ले उड़ता है।
संत कबीर का दर्शन यही है कि जीवन में कर्म, परिश्रम व पुरुषार्थ को महत्व दें व पल-पल का सदुपयोग करें। साथ ही जाने-अनजाने हुए अच्छे-बुरे कामों का मंथन करते रहें।
संत कबीर ने जीवन में अहंकार व उससे मिलने वाले दु:खों से बचने के लिए बहुत ही बेहतर सीख दी। लिखा गया कि-
कबिरा गर्ब न कीजिये, और न हंसिये कोय।
अजहूं नाव समुद्र में, ना जाने का होय।।
अर्थ है कि हर इंसान समुद्र रूपी संसार में जीवन रूपी नाव में बैठा है, इसलिए वह किसी भी स्थिति में ताकत, बल, सुख, सफलता पाकर अहंकार न करें, न ही उसके मद में दूसरों की हंसी उडाए या उपेक्षा, अपमान करे, क्योंकि न जाने कब काल रूपी हवा के तेज झोंके के उतार-चढ़ाव जीवन रूपी नौका को डूबो दे।
इसमें संकेत यही है कि जब व्यक्ति के मन में स्वयं का महत्व सबसे ऊपर हो जाता है और अपनी बात, विचार और कामों के साथ ही वह स्वयं को ही बड़ा मानने लगता है। अहंकार की यह स्थिति ही अंतत: गहरे दु:ख-संताप का कारण बन सकती है।
सभी जानते हैं कि अहंकार करना एक बुराई है, पर इसे पहचानना भी कठिन है, किंतु कबीर के इस दोहे को स्मरण कर अंहकार को जीवन में प्रवेश कर रोका व जीवन में अनचाहे दु:खों से बचा जा सकता है।
आज के दौर में अक्सर नजर आता है कि कई लोगों की सोच शरीर और धन पर ज्यादा टिकी रहती है। इनके लिए वह चरित्र में पैदा हो रहे दोषों को नजरअंदाज भी करते हैं, जबकि सच यही है कि शारीरिक, मानसिक सुखों के साथ-साथ मान-सम्मान और यशस्वी जीवन के मूल में चरित्र की पवित्रता ही होती है।
संत कबीर ने भी घर-परिवार की बुनियाद को मजबूत बनाए रखने, गृहस्थ व व्यक्तिगत जीवन को खुशहाल बनाने व संस्कार व मूल्यों को जीवित रखने के लिए चरित्रहीनता से बचने की इस दोहे की जरिए बेहतर नसीहत दी है।कहा है कि -
परनारी का राचणौं, जिसी लहसण की खानि।
खूणैं बैंसि र खाइए, परगट होइ दिवानि।।
सरल अर्थ व सार है कि चरित्र की कमजोरी से किया गया पर स्त्री का संग व्यक्ति के कर्म, बोल, भाव, व्यवहार, मनोदशा या अन्य जरियों से उजागर हो ही जाता है। ठीक वैसे ही जैसे लहसुन को किसी भी स्थान पर छिपकर खाने पर भी उसकी गंध छिपाए नहीं छिपती।
दरअसल, संत कबीर के इस दोहे में जीवन के चार पुरुषार्थ में अहम काम के मूल लक्ष्य सृजन को सकारात्मक तरीकों से पाने की ओर इशारा भी है। साथ ही यह संकेत भी दिया है कि मात्र कामनापूर्ति के वशीभूत भटककर उठाए नकारात्मकता कदम दोष बनकर तन, मन, प्रतिष्ठा व चरित्र के लिये घातक साबित होते हैं। ऐसे ही दोष युक्त काम भाव को शास्त्रों में 6 विकारों में शामिल किया गया है।
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