भगवान गौतम बुद्ध
ने क्रोध करने से सात अनर्थ बताए हैं। उनके अनुसार जो स्त्री या पुरुष क्रोध करता
है, उसके शत्रु को इन सात बातों की प्रसन्नता होती है :-
(1) मनुष्य चाहता है कि उसका शत्रु कुरूप हो जाए क्योंकि कोई भी यह पसंद नहीं करता है कि उसका शत्रु स्वरूपवान हो, सुंदर हो। जब उसे क्रोध आता है, तो भले ही उसने मल-मलकर स्नान किया हो, सुगंध लगाई हो, बाल और दाढ़ी ठीक ढंग से बनाई हो, उसके कपड़े स्वच्छ हों, फिर भी वह कुरूप लगता है क्योंकि उसकी आंखों में क्रोध भरा हुआ है। इससे उसके शत्रु को प्रसन्नता होती है।
(2) मनुष्य चाहता है कि उसका शत्रु पीड़ा पाए। क्योंकि कोई आदमी यह पसंद नहीं करता कि उसका शत्रु आराम से रहे। जब उसे क्रोध आता है तो भले ही वह बढ़िया बिस्तर पर पड़ा हो, बढ़िया कंबल उसके पास हो, मृगचर्म ओढ़े हो, सिर और पैर के नीचे बढ़िया तकिए लगे हों, फिर भी वह पीड़ा का अनुभव करता है क्योंकि उसकी आंखों में क्रोध भरा हुआ है। इससे उसके शत्रु को प्रसन्नता होती है।
(3) मनुष्य चाहता है कि उसका शत्रु संपन्न न रहे। क्योंकि अपने शत्रु की संपन्नता किसी को अच्छी नहीं लगती। मनुष्य जब क्रोध का शिकार होता है, तब वह बुरे को अच्छा और अच्छे को बुरा समझता है। इस तरह करते रहने से उसे हानि और कष्ट भोगना पड़ता है। उसकी संपन्नता जाती रहती है। इससे उसके शत्रु को प्रसन्नता होती है।
(1) मनुष्य चाहता है कि उसका शत्रु कुरूप हो जाए क्योंकि कोई भी यह पसंद नहीं करता है कि उसका शत्रु स्वरूपवान हो, सुंदर हो। जब उसे क्रोध आता है, तो भले ही उसने मल-मलकर स्नान किया हो, सुगंध लगाई हो, बाल और दाढ़ी ठीक ढंग से बनाई हो, उसके कपड़े स्वच्छ हों, फिर भी वह कुरूप लगता है क्योंकि उसकी आंखों में क्रोध भरा हुआ है। इससे उसके शत्रु को प्रसन्नता होती है।
(2) मनुष्य चाहता है कि उसका शत्रु पीड़ा पाए। क्योंकि कोई आदमी यह पसंद नहीं करता कि उसका शत्रु आराम से रहे। जब उसे क्रोध आता है तो भले ही वह बढ़िया बिस्तर पर पड़ा हो, बढ़िया कंबल उसके पास हो, मृगचर्म ओढ़े हो, सिर और पैर के नीचे बढ़िया तकिए लगे हों, फिर भी वह पीड़ा का अनुभव करता है क्योंकि उसकी आंखों में क्रोध भरा हुआ है। इससे उसके शत्रु को प्रसन्नता होती है।
(3) मनुष्य चाहता है कि उसका शत्रु संपन्न न रहे। क्योंकि अपने शत्रु की संपन्नता किसी को अच्छी नहीं लगती। मनुष्य जब क्रोध का शिकार होता है, तब वह बुरे को अच्छा और अच्छे को बुरा समझता है। इस तरह करते रहने से उसे हानि और कष्ट भोगना पड़ता है। उसकी संपन्नता जाती रहती है। इससे उसके शत्रु को प्रसन्नता होती है।
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(4) मनुष्य
चाहता है कि उसका शत्रु धनवान न हो। क्योंकि कोई यह पसंद नहीं करता कि उसका शत्रु
पैसेवाला हो। जब उसे क्रोध आता है तो भले ही उसने अपने श्रम से संपत्ति जुटाई हो,
अपनी भुजाओं से, अपने श्रम के बल पर पसीने से, ईमानदारी से पैसा इकट्ठा किया हो,
वह गलत काम करने लगता है, जिससे उसे जुर्माना आदि करना पड़ता है। उसकी संपत्ति नष्ट
हो जाती है। इससे उसके शत्रु को प्रसन्नता होती है।
(5) मनुष्य चाहता है कि उसके शत्रु की नामवरी न हो। क्योंकि कोई आदमी यह पसंद नहीं करता कि उसके शत्रु की ख्याति हो। जब उसे क्रोध आता है तो पहले उसने भले ही अपने अच्छे कामों से नामवरी प्राप्त की हो, अब लोग कहने लगते हैं कि यह तो बड़ा क्रोधी है। उसकी नामवरी मिट जाती है। इससे उसके शत्रु को प्रसन्नता होती है।
(6) मनुष्य चाहता है कि उसका शत्रु मित्रहीन रहे, उसका कोई मित्र न हो। क्योंकि कोई मनुष्य नहीं चाहता कि उसके शत्रु का कोई मित्र हो। जब उसे क्रोध आता है तो उसके मित्र, उसके साथी, उसके सगे-संबंधी उससे दूर रहने लगते हैं क्योंकि वह क्रोध का शिकार होता है। इससे उसके शत्रु को प्रसन्नता होती है।
(7) मनुष्य चाहता है कि मरने पर उसके शत्रु को सुगति न मिले उल्टे नरक में बुरा स्थान मिले। क्योंकि कोई शत्रु नहीं चाहता कि उसके शत्रु को अच्छा स्थान मिले। जब मनुष्य को क्रोध आता है तो वह मन, वचन, कर्म से तरह-तरह के गलत काम करता है। इससे मरने पर वह नरक में जाता है। इससे उसके शत्रु को प्रसन्नता होती है।
क्रोधी आदमी किसी बात का ठीक अर्थ नहीं समझता। वह अंधकार में रहता है। वह अपना होश खो बैठता है। वह मुंह से कुछ भी बक देता है। उसे किसी बात की शर्म नहीं रहती। वह किसी की भी हत्या कर बैठता है, फिर वह साधारण आदमी हो या साधु हो, माता-पिता हों या और कोई। वह आत्महत्या तक कर बैठता है।
क्रोध से मनुष्य का सर्वनाश होता है। जो लोग क्रोध का त्याग कर देते हैं, काम, क्रोध, ईर्ष्या से अपने को मुक्त कर लेते हैं, वे निर्वाण पाते हैं।
(5) मनुष्य चाहता है कि उसके शत्रु की नामवरी न हो। क्योंकि कोई आदमी यह पसंद नहीं करता कि उसके शत्रु की ख्याति हो। जब उसे क्रोध आता है तो पहले उसने भले ही अपने अच्छे कामों से नामवरी प्राप्त की हो, अब लोग कहने लगते हैं कि यह तो बड़ा क्रोधी है। उसकी नामवरी मिट जाती है। इससे उसके शत्रु को प्रसन्नता होती है।
(6) मनुष्य चाहता है कि उसका शत्रु मित्रहीन रहे, उसका कोई मित्र न हो। क्योंकि कोई मनुष्य नहीं चाहता कि उसके शत्रु का कोई मित्र हो। जब उसे क्रोध आता है तो उसके मित्र, उसके साथी, उसके सगे-संबंधी उससे दूर रहने लगते हैं क्योंकि वह क्रोध का शिकार होता है। इससे उसके शत्रु को प्रसन्नता होती है।
(7) मनुष्य चाहता है कि मरने पर उसके शत्रु को सुगति न मिले उल्टे नरक में बुरा स्थान मिले। क्योंकि कोई शत्रु नहीं चाहता कि उसके शत्रु को अच्छा स्थान मिले। जब मनुष्य को क्रोध आता है तो वह मन, वचन, कर्म से तरह-तरह के गलत काम करता है। इससे मरने पर वह नरक में जाता है। इससे उसके शत्रु को प्रसन्नता होती है।
क्रोधी आदमी किसी बात का ठीक अर्थ नहीं समझता। वह अंधकार में रहता है। वह अपना होश खो बैठता है। वह मुंह से कुछ भी बक देता है। उसे किसी बात की शर्म नहीं रहती। वह किसी की भी हत्या कर बैठता है, फिर वह साधारण आदमी हो या साधु हो, माता-पिता हों या और कोई। वह आत्महत्या तक कर बैठता है।
क्रोध से मनुष्य का सर्वनाश होता है। जो लोग क्रोध का त्याग कर देते हैं, काम, क्रोध, ईर्ष्या से अपने को मुक्त कर लेते हैं, वे निर्वाण पाते हैं।
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