जीवन में सफलता के सफर को लंबा बनाने में लगातार तरक्की व यश भी अहम होते हैं। इनके बिना कामयाबी का सफर थम सकता है। इनके लिए मन, विचार, शरीर को ऊर्जावान, स्वस्थ व शक्ति संपन्न बनाए रखना बेहद जरूरी होता है, जो नियमित व अनुशासित जीवनशैली से संभव है।
हिन्दू धर्म में जीवन को साधने और सुधारने के सरल तरीकों में सूर्य उपासना बहुत ही शुभ व मंगलकारी मानी गई है। व्यावहारिक नजरिए से भी सुबह उठकर दिन की शुरुआत सूर्य उपासना के साथ करने पर साफ हवा व प्रकाश शरीर व मन को स्वस्थ व चुस्त बनाए रखते हैं।
यही वजह है कि निरोगी, यशस्वी व सफल जीवन पाने के लिए सूर्य उपासना में सूर्य नमस्कार, अर्घ्य पूजा व आरती के साथ कुछ सरल उपाय भी शास्त्रों में बताए गए हैं। इन उपायों में एक है - उस सूर्य मंत्र स्तोत्र को सुनना, जो माना जाता है कि स्वयं जगत के रचनाकार ब्रह्मदेव द्वारा सूर्य पूजा में बोला गया।
यही वजह है कि निरोगी, यशस्वी व सफल जीवन पाने के लिए सूर्य उपासना में सूर्य नमस्कार, अर्घ्य पूजा व आरती के साथ कुछ सरल उपाय भी शास्त्रों में बताए गए हैं। इन उपायों में एक है - उस सूर्य मंत्र स्तोत्र को सुनना, जो माना जाता है कि स्वयं जगत के रचनाकार ब्रह्मदेव द्वारा सूर्य पूजा में बोला गया।
ब्रह्मदेव के कंठ से निकली इस मंत्र स्तुति में ही कहा गया है कि इस सूर्य मंत्र स्तोत्र का पाठ ही नहीं, बल्कि सुनने मात्र से ही कीर्ति व ख्याति प्राप्त होती है। जानिए इस सूर्य स्तोत्र अद्भुत मंत्र-
सप्तमी तिथि के दिन सूर्य को जल कलश से अर्घ्य देकर सूर्य प्रतिमा लाल गंध, अक्षत, लाल फूल या कमल अर्पित करें। गुड़-घी से बनी मिठाई का भोग लगाएं। गुग्गुल धूप व दीप लगाकर किसी विद्वान ब्राह्मण या सदाचारी व्यक्ति से इस सूर्य मंत्र स्तुति का श्रवण करें। इस मंत्र स्तोत्र का पाठ स्वयं भी करें, तो बहुत शुभ फल मिलते हैं।
भगवन्तं भगकरं शान्तचित्तमनुत्तमम्। देव मार्गप्रणेतारं रविं सदा।।
शाश्वतं शोभनं शुद्धं चित्रभानुं दिवस्पतिम्। देवदेवेशमीशेशं प्रणतोस्मि दिवाकरम्।।
सर्वदु:खहरं देवं सर्वदु:खहरं रविम्। वराननं वराङ्गं च वरस्थानं वरप्रदम्।।
वरेण्यं वरदं नित्यं प्रणतोस्मि विभावसुम्। अर्कमर्यमणं चेन्द्र विष्णुमीशं दिवाकम्।।
देवेश्वरं देवरतं प्रणतोस्मि विभावसुम्। य इदं श्रृणुयान्नित्यं ब्रह्मणोक्तं स्तवं परम्।।
स हि कीर्ति परां प्राप्य पुन: सूर्यपुरं व्रजेत्।।
शाश्वतं शोभनं शुद्धं चित्रभानुं दिवस्पतिम्। देवदेवेशमीशेशं प्रणतोस्मि दिवाकरम्।।
सर्वदु:खहरं देवं सर्वदु:खहरं रविम्। वराननं वराङ्गं च वरस्थानं वरप्रदम्।।
वरेण्यं वरदं नित्यं प्रणतोस्मि विभावसुम्। अर्कमर्यमणं चेन्द्र विष्णुमीशं दिवाकम्।।
देवेश्वरं देवरतं प्रणतोस्मि विभावसुम्। य इदं श्रृणुयान्नित्यं ब्रह्मणोक्तं स्तवं परम्।।
स हि कीर्ति परां प्राप्य पुन: सूर्यपुरं व्रजेत्।।
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